हवाओं, मत उमेठो हमारे कान,
दुखते तो नहीं, पर देखो,
ये निगोड़े फूल मुस्कराते हैं,
कल की जन्मी कलियाँ
मन-ही-मन खिलखिलाती हैं.
हवाओं, कभी तुम यहाँ, कभी वहाँ,
ठहरना तो सीखा ही नहीं तुमने,
तुम्हीं कहो, कैसे बदला लें,
कैसे रोकें तुम्हें खींचकर?
ये डालियाँ, ये टहनियाँ
हमारी होकर भी
साथ नहीं देती हमारा,
न जाने कब से जकड़ रखा है,
तय कर रखी है हमारी उड़ान की सीमा.
बुरा न मानो, हवाओं,
ठिठोली तो समझो,
मत रोकना हमारे कान उमेठना,
मत छीनना हमसे ये खुशी,
कोई तो हो, जो हमसे ये आज़ादी ले.
दुखते तो नहीं, पर देखो,
ये निगोड़े फूल मुस्कराते हैं,
कल की जन्मी कलियाँ
मन-ही-मन खिलखिलाती हैं.
हवाओं, कभी तुम यहाँ, कभी वहाँ,
ठहरना तो सीखा ही नहीं तुमने,
तुम्हीं कहो, कैसे बदला लें,
कैसे रोकें तुम्हें खींचकर?
ये डालियाँ, ये टहनियाँ
हमारी होकर भी
साथ नहीं देती हमारा,
न जाने कब से जकड़ रखा है,
तय कर रखी है हमारी उड़ान की सीमा.
बुरा न मानो, हवाओं,
ठिठोली तो समझो,
मत रोकना हमारे कान उमेठना,
मत छीनना हमसे ये खुशी,
कोई तो हो, जो हमसे ये आज़ादी ले.
वाह....
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत.........
कान उमेठती हवा!!!!!
सादर
अनु
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा अभिव्यक्ति,,,सुंदर प्रस्तुत रचना,,,,
जवाब देंहटाएंMY RECENT POST....काव्यान्जलि...:चाय
वाह ...बहुत खूब।
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