शुक्रवार, 28 सितंबर 2018
शुक्रवार, 21 सितंबर 2018
शुक्रवार, 14 सितंबर 2018
शुक्रवार, 7 सितंबर 2018
३२४. अंत
रात बड़ी कंजूस है,
समेट रही है
अपने आँचल में
ओस की बूँदें,
नहीं जानती वह
कि चले जाना है उसे
ओस की बूंदों को
यहीं छोड़कर।
ओस की बूँदें भी
कहाँ समझती हैं
कि ज़िंदा हैं वे
बस सूरज निकलने तक,
सोख लिया जाएगा
उन्हें भी.
सूरज भी न रहे
किसी मद में,
ढक लेगा उसे भी
कोई आवारा बादल,
अगर न ढके तो भी
डूबना होगा उसे
अंततः
शनिवार, 1 सितंबर 2018
३२३. बारिश से
बारिश,अब थम भी जाओ.
भर गए हैं नदी-नाले,
तालाब,बावड़ियां,गड्ढे,
नहीं बची अब तुम्हारे लिए
कोई भी जगह.
अब भी नहीं रुकी तुम,
तो बनाना होगा तुम्हें
ख़ुद अपना ठिकाना,
उजाड़ना होगा दूसरों को,
क्या अच्छा लगेगा तुम्हें
यह सब?
क्या अच्छा लगेगा तुम्हें
कि लोग तुमसे डरें?
बारिश,
देखो,हमेशा की तरह सजी है
आसमान की डाइनिंग टेबल,
पर सूरज नहीं कर पा रहा
नाश्ता या लंच.
सूरज को ज़रा निकलने दो,
बैठने दो आसमान की मेज़ पर,
बारिश, अब थम भी जाओ.
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