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शनिवार, 23 फ़रवरी 2013

६९.आदर्श

मुझे नहीं बनना तुम्हारा आदर्श.

मैं बस मैं बना रहना चाहता हूँ,
वह नहीं जो तुम सोचते हो कि मैं हूँ,
मेरी कमजोरियां सामने आने दो,
थोड़ा-सा मोहभंग हो जाने दो,
मैं चाहता हूँ थोड़ा बेशर्म बनना,
थोड़ी बेहूदा हरकतें करना,
थोड़ा झूठ बोलना, लड़ना- झगड़ना,
नाराज़ होना, बदला लेना,
पीठ पीछे थोड़ी बुराई करना.

तोड़ डालो वह छवि,
जो मेरी तुम्हारे मन में है,
मुझे देखो,समझो,जानो,
मैं भी औरों की तरह 
एक ओछा-सा इंसान हूँ 
और इसी में खुश हूँ.

मुझे मत बनाओ भगवान,
मत करो अपेक्षाओं में क़ैद,
मुझे ज़रा सांस लेने दो,
मुझे ज़रा जीने दो,
मुझे नहीं बनना तुम्हारा आदर्श,
मुझे नहीं बनना किसी का भी आदर्श.

शनिवार, 16 फ़रवरी 2013

६८.मैं

मेरे घर की दहलीज़,
कितनी बार कहा तुझसे 
कि जब मैं बाहर से आऊं 
तो जूतों के साथ 
उतरवा लिया करो 
मुझसे मेरा मैं भी.

बहुत ढीठ है यह मैं,
हमेशा लगा रहता है साथ,
दफ्तर में, बाज़ार में,
बस में, रास्ते में,
हर जगह...
कम से कम घर में तो छोड़ दे 
मुझे मेरे हाल पर, 
पड़ा रहे जूतों के साथ
दहलीज़ के बाहर,
पर नहीं, यह बेशर्म
घुस आता है मुंह उठाए 
मेरे साथ मेरे घर में.

इस मैं के साथ
मैं मैं नहीं रहता,
घर चाहे जो भी हो 
घर नहीं रहता.

रविवार, 10 फ़रवरी 2013

६७.कविता की खोज

कल एक कविता ख्यालों में आई,
मैं पकड़ पाता हाथ बढ़ाकर
इससे पहले गायब हो गई.

बहुत परेशान हूँ मैं,
कैसे रपट लिखाऊं,
कैसे इश्तेहार छपवाऊँ,
गुमशुदा अपनी कविता को 
कैसे लौटाकर लाऊँ?

कोई शक्ल-सूरत हो
तो उसे खोजा भी जाए,
जो कागज़ पर उतरने से पहले ही 
गायब हो गई हो,
उस कविता को कैसे ढूँढा जाए?