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शनिवार, 31 अगस्त 2013

९५. गायब हुए गाँधी

कुछ साल पहले तक 
सड़कों पर गाँधी मिल जाया करते थे.
उनसे मिलकर अच्छा लगता था,
लगता था, सरलता और त्याग जिंदा हैं
और जिंदा है, भरोसेमंद नेतृत्व,
पर अब स्थितियां बदल गई हैं,
अब सड़कों पर केवल नाथूराम दिखते हैं,
उनके हाथों में बंदूकें 
और आँखों में हैवानियत होती है,
उनके शब्द ताज़ा घावों पर 
नमक-जैसा असर करते हैं.
उन्हें मालूम है, पर नहीं बताते 
कि सारे गाँधी कहाँ चले गए.
मुश्किल है, उनका लौटकर आना,
अब उनके बिना ही जीना होगा.
जो गाँधी गायब हुए हैं, बहुत अहिंसक हैं,
आत्मरक्षा में भी हथियार नहीं उठाते.

शनिवार, 24 अगस्त 2013

९४.रास्ते

मत करो रास्तों को समतल,
इन्हें ऊबड़-खाबड़ ही रहने दो.

सीधे-सपाट रास्तों पर चलकर 
चलने का मज़ा नहीं आता,
रास्ते टेढ़े-मेढ़े, ऊंचे-नीचे हों,
कहीं गड्ढे,कहीं कंकड़,कहीं कांटे हों,
तो लगता है, चल रहे हैं.

सीधे-सपाट रास्तों पर चलकर 
सुस्ती महसूस होती है,
छायादार पेड़ के नीचे बैठकर 
पलकें झपकाने का मन होता है,
चलना मुश्किल हो जाता है.

अच्छा तो यही है कि
ऊबड़-खाबड़ रास्ते भी न हों,
मंजिल तक भले न पंहुचें,
रास्ता बनाने की कला तो सीखें.

मंजिल तक पंहुचने के लिए,
वहाँ तक राह बनाने के लिए
या फिर चलने की खुशी के लिए 
ज़रुरी है कि रास्ते ऊबड़-खाबड़ हों 
या फिर बिल्कुल न हों.

गुरुवार, 15 अगस्त 2013

९३. कविता- अधूरी या पूरी ?

कभी-कभी मन करता है,
वह वर्षों पुरानी कविता पूरी कर दूं.

जब तुम्हारी एक झलक पहली बार देखी थी,
फिर महीनों तक चोरी-छिपे देखता रहा था,
जब कई दिनों के इंतज़ार के बाद 
पहली बार तुम्हें हँसते देखा था
और यह भी कि जब तुम हँसती थी 
तो तुम्हारे गालों में डिम्पल पड़ जाते थे,
जब पहली बार तुम्हारी आवाज़ सुनी थी,
तुमसे ज़रा-सी बात करने के लिए 
न जाने कैसे-कैसे बहाने ढूंढे थे,
कितनी हिम्मत जुटाई थी
कितनी रिहर्सल की थी,
जब पहली बार तुम्हारी आँखों के रंग में 
मैंने हल्का-सा हरापन महसूस किया था,
जब पहली बार मैंने डरते-डरते
तुमसे मन की बात कही थी 
और तुमने तुरंत जवाब दिया था,
"नहीं"....

बहुत बार कागज़-कलम लेकर बैठा,
पर आगे कुछ लिख ही नहीं पाया,
लगता है,आज भी कुछ वैसा ही होगा,
पर आज कविता कुछ अलग-सी लग रही है.

जो कविता मैंने कभी मन से लिखी थी,
आज वही बहुत बचकानी लगती है,
जो सालों तक अधूरी महसूस होती रही,
आज लगता है, वह तो शुरू से ही पूरी थी.

गुरुवार, 8 अगस्त 2013

९२. पैंगोंग से

(पैंगोंग- लेह से लगभग १५० किलोमीटर दूर स्थित खूबसूरत झील. करीब १३८ किलोमीटर लंबी इस झील का ४०% भारत में और शेष चीन में है.)


पैंगोंग, तुम्हारा पानी इतना स्थिर क्यों है?
इतना सहमा-सा, इतना उदास क्यों है?
क्या इसका मन नहीं करता 
कि कभी चीन की ओर दौड़ जाय
और वहाँ के पानी से गले मिल ले,
ज़रा वहाँ के नज़ारे भी देख ले.

पासपोर्ट-वीज़ा नहीं तो क्या
चोरी-छिपे ही चला जाय,
सतह के नीचे-नीचे,
सैनिकों की निगाहों से बचते-बचाते.

और तुम, चिड़िया,
पैंगोंग पर जब उड़ान भरो,
तो ध्यान रखना 
कि सीमा-पार न चली जाओ,
किसी सैनिक की गोली का शिकार न बन जाओ.

सच है कि यह विशाल झील एक है,
पर चिड़िया, धोखा मत खाना,
यह थोड़ी भारत और थोड़ी चीन में है.
उड़ान भरते समय याद रखना 
कि भारत की चिड़ियों का चीन जाना 
और चीन की चिड़ियों का भारत आना 
सख्त मना है.