८.वेदना
खेल-खेल में राहगीर
तोड़ लेते हैं टहनियां,
मसल डालते हैं पत्ते,
बच्चे फेंक जाते हैं मुझपर
पत्थर यूँ ही...
आवारा पक्षी जब चाहें
बैठ जाते हैं शाखों पर
या बना लेते हैं उनमें घोंसले
बिना पूछे...
बारिशें भिगो जाती हैं,
झिंझोड़ जाती हैं कभी भी,
हवाएं कभी हौले
तो कभी जोर से
लगा जाती हैं चपत
ठिठोली में...
पतझड़ को नहीं सुहाती
मेरी हरियाली, मेरी मस्ती,
कर जाता है मुझे नंगा बेवजह
जाते-जाते...
आखिर मेरा कसूर क्या है?
क्या बस यही
कि मैं सब कुछ
चुपचाप सहता हूँ?