सुनो,
जब पत्थर बरसते हैं गलियों में,
आग लगाई जाती है बस्तियों में,
जब सड़कों का रंग लाल
और आसमान का काला हो जाता है,
जब गीत-संगीत की जगह
गूँजते हैं ज़हरीले नारे,
बच्चों की किलकारियों की जगह
गूँजती है उनके रोने की आवाज़.
जब भूख, नफ़रत और डर का
अड्डा हो जाता है मोहल्लों में,
तब तुम नुक्कड़ पर खड़े होकर
इतना हँस कैसे लेते हो?
तुमसे तो अच्छी वह प्रतिमा है,
जो चौराहे पर खड़ी रहती है,
सब कुछ देखती रहती है,
कुछ कर नहीं पाती,
पर कम-से-कम हँसती तो नहीं है.