मैं राजधानी ट्रेन हूँ,
कहने को राजधानी हूँ,
पर बहुत दुखी हूँ.
मैं गाँव-देहात से होकर
गुज़रती ज़रूर हूँ,
पर वहां रुकती नहीं,
वहां के लोगों से
कभी मिलती नहीं,
बस धड़धड़ाकर
आगे निकल जाती हूँ,
जैसे कि मैंने उन्हें
देखा ही नहीं.
चलती रहती हूँ मैं,
अपने लिए सोचने का
समय ही कहाँ है,
बड़े स्टेशन आते हैं,
तो ज़रा-सी रुक जाती हूँ,
फिर चल पड़ती हूँ,
जैसे बेमन से रुकी थी.
लोग न जाने क्या समझते हैं,
पर सच में मेरी चलती,
तो मैं राजधानी नहीं,
पैसेंजर होना पसंद करती.