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शुक्रवार, 25 जनवरी 2013

६६.पतंग

मैं, रंग-बिरंगी, चमकीली,
उड़ती रही हवा में अनवरत,
जाती रही बादलों के पार,
झूमती रही मस्ती में,
झुक-झुक कर देखती रही 
नीचे पड़ी बेबस-सी ज़मीन 
और उसकी पिद्दी-सी चीज़ों को.

बड़ा भा रहा था मचलना, मटकना,
किसी भी रोक-टोक का न होना,
लगता था जैसे यही मेरा घर है,
जैसे यही मेरी ज़िंदगी है.

न जाने अचानक क्या हुआ,
नियंत्रण खो बैठी मैं खुद पर,
धड़ाम से आ गिरी ज़मीन पर,
जहाँ मुझे लपकने के लिए 
लोग बल्लियाँ लिए खड़े थे.

काश, समय रहते मैं जान जाती
कि मेरी डोर किसी और के हाथ में है,
कि आसमान की मेरी उड़ान मेरी नहीं,
कि जो ज़मीन छोटी-सी दिखती है ,
अंततः मुझे वहीँ लौटना है. 

शुक्रवार, 18 जनवरी 2013

६५. अकेला

तुम कभी अकेले नहीं हो,
अगर अपने साथ तुम खुद हो.

सभी तुम्हारा साथ छोड़ जांय,
तो भी डरने की कोई बात नहीं,
न ही मुंह छिपाने की कोई बात है,
न ही इसमें कहीं कोई हार है.

अगर ऐसा हो जाय कि सभी 
एक-एक कर तुमसे अलग हो जांय,
तो अपने से थोड़ा दूर जाना,
देखना कि क्या तुम अपने साथ हो.

अगर हाँ, तो फिर तुम अकेले नहीं,
अगर ना,तो खुद को ऐसा बदलना
कि तुम खुद अपने साथ हो जाओ,
देखना, वे लोग भी साथ आ जाएँगे,
जो एक-एक कर तुमसे  दूर हुए थे.

अगर कोई साथ न आए 
तो भी कोई परवाह नहीं,
अगर तुम अपने साथ हो,
तो फिर तुम अकेले कहाँ हो?

शुक्रवार, 11 जनवरी 2013

६४.दहलीज़

मुझे पसंद नहीं दहलीज़,
जो तय कर देती है 
मेरे घर की सीमा,
जता देती है कि अपना क्या है 
और पराया क्या है,
बता देती है इस ओर का फ़र्क
उस ओर से.

क्यों न हटा दें ये संकेत,
जो पैदा करते हैं दुविधाएं,
रोकते हैं किसी को बाहर जाने 
और किसी को अंदर आने से.

सभी अगर इंसान हैं 
तो अपना-पराया कैसा,
घर-बाहर कैसा,
ये सीमाएं कैसी 
और ये दह्लीज़ें किसलिए?

शनिवार, 5 जनवरी 2013

६३. मैं क्या हूँ?

मैं क्या हूँ ?
आकाश में भटकता बादल,
जो गरजे न बरसे,
जिसे उड़ाती रहें हवाएं,
इधर से उधर...

नहीं,मैं वो नहीं हूँ,
बादल तो देता हैं छांव,
मैं क्या देता हूँ?

क्या मैं पानी का बुलबुला हूँ?
नहीं, वह भी लगता है सुन्दर
धीरे-धीरे सतह पर तैरते.

क्या मैं हवा का गुब्बारा हूँ?
नहीं, गुब्बारे से खेलकर
खुश होते हैं बच्चे,
भाता है उसका इधर-उधर उड़ना.

न मैं बादल हूँ,
न बुलबुला,न गुब्बारा,
मैं ऐसा कुछ हूँ,
जिसका अस्तित्व तो है,
पर क्यों है,पता नहीं.