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गुरुवार, 29 मई 2025

807. माँ

 



जब तुम नहीं रहोगी,

तो कौन बंद कराएगा टी.वी.

ताकि बहराते कान सुन सकें 

ट्रेन की सीटी की आवाज़.


खिड़की के पर्दे से 

कौन झांक-झांक कर देखेगा

कि स्टेशन से आकर 

कोई रिक्शा तो नहीं रुका.


कौन कहेगा कि खाने में 

भिन्डी ज़रूर बनाना,

कौन कहेगा कि चाय में 

चीनी कम डालना.


कौन बतियाएगा घंटों तक,

सुनाएगा गाँव के हाल,

पूछेगा छोटी से छोटी खबर,

साझा करेगा हर गुज़रा पल। 


जब मैं हँसूंगा, तो कौन कहेगा,

अब बस भी करो,

मुझे दिखता कम है ,

पर इतना तो मैं जानती हूँ,

कि तुम हँस नहीं रहे 

हँसने का नाटक कर रहे हो.


गुरुवार, 22 मई 2025

806. ट्रेन

 


दौड़ती चली जा रही है ट्रेन,

घुप्प अंधेरा है बाहर,

बेफ़िक्र सो रहे हैं यात्री,

कुछ, जो अभी-अभी चढ़े हैं,

सामान लगा रहे हैं अपना,

कुछ, जो उतरनेवाले हैं,

समेट रहे हैं अपना सामान,

कुछ बतिया रहे हैं,

कुछ बदल रहे हैं करवटें।


इन सबसे बेपरवाह 

भागी जा रही है ट्रेन,

एक ही धुन है उसकी-

अपने गंतव्य तक पहुँचना

और उन सबको पहुंचाना,

जो बैठे हैं उसके भरोसे।


रविवार, 11 मई 2025

805. मां

 



इन दिनों मैं बहुत ढूंढ़ता हूँ मां को,

हर किसी में खोजता हूँ उसे,

कभी ढूंढ़ता हूँ बहन में,

कभी बेटी में, कभी पत्नी में। 


दूसरों की मांओं में 

मैं अक्सर खोजता हूं मां,

उनमें भी खोजता हूं 

जो अभी नहीं बनीं मां,

उनमें भी, जिन्हें पता नहीं 

कि क्या होती है मां।


महिलाओं में ही नहीं,

मैं पुरुषों में भी खोजता हूं मां,

इंसानों में ही नहीं,

जानवरों में, परिंदों में,

पेड़ पौधों में,

फूल पत्तियों में, 

यहां तक कि निर्जीव चीज़ों में भी 

मैं खोजता हूं मां।


सब में मिल जाती है मुझे 

थोड़ी थोड़ी वह,

पर किसी में नहीं मिलती मुझे 

पूरी की पूरी मां।