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शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2015

१८९. मेहमान

सड़कें बंद हैं,
रास्ता रोके खड़े हैं 
पुलिस के बैरियर,
आड़ी-तिरछी बेतरतीब 
बिखरी हुई हैं गाड़ियाँ,
सूई भर जगह नहीं सरकने को,
हाल बेहाल है 
धुएं और गर्मी से,
बीमार सोए हैं पिछली सीटों पर 
अस्पताल के इंतज़ार में,
आख़िरी सांसें चल रही हैं कइयों की,
कई मांओं ने जन दिए हैं 
ऑटो में ही अपने बच्चे. 

लगता है, कोई विशिष्ट मेहमान 
आज शहर में आया है. 

रविवार, 25 अक्तूबर 2015

१८८. पट्टेवाले कुत्ते



कुत्ते जो बंद कमरों में 
नर्म बिस्तर पर सोते हैं,
बढ़िया खाना खाते हैं,
प्यार से पुकारे जाते हैं,
दुलारे-पुचकारे जाते हैं,
बड़े बेचारे-से लगते हैं,
जब गले में पट्टा डालकर 
सैर पर ले जाए जाते हैं. 

इन्हें देखकर भौंकते हैं 
गली के आवारा कुत्ते 
और ये पट्टे से बंधे 
चुपचाप चले जाते हैं. 

बिरादरी से अलग-थलग,
इन्हें देखकर लगता है 
कि इन्हें सिर्फ़ दुम दबाकर 
निकल जाना आता है,
न काटना आता है,
न भौँकना. 

शनिवार, 17 अक्तूबर 2015

१८७. कविताओं का विषय

अब नहीं लिखूंगा 
मैं कोई प्रेम कविता,
वक़्त का तक़ाज़ा है 
कि अब बदल दें कवि     
अपनी कविताओं का विषय. 

सदियों पुराना विश्वास 
जब टूट जाय चरमराकर, 
मंदिरों का उपयोग 
जब होने लगे उकसाने को,
जब निकल पड़े उन्मत्त भीड़
किसी अपने की तलाश में 
खून की प्यासी होकर,
जब सरे आम किसी का क़त्ल 
इसलिए कर दिया जाय 
कि उसने जो खाया था,
उसे वह नहीं खाना चाहिए था,
तो कैसे लिख सकता है कोई कवि 
कोई प्रेम कविता?

इसलिए मैं कहता हूँ 
कि अब नहीं लिखूंगा 
कोई प्रेम कविता, 
हालाँकि मैं प्रेम कविताओं का कवि हूँ. 



शनिवार, 10 अक्तूबर 2015

१८६. भीड़ में मैं

मैं जब भीड़ में होता हूँ,
तो मैं नहीं रहता,
बिल्कुल बदल जाता हूँ.

अकेले में मैं शांत हूँ,
पर भीड़ में हिंसक हो जाता हूँ,
गन्दी गालियां बक सकता हूँ,
हाथापाई कर सकता हूँ,
पत्थर फेंक सकता हूँ,
यहाँ तक कि किसी की
जान भी ले सकता हूँ.

अकेले में मुझे परवाह नहीं
नैतिकता और सिद्धांतों की,
पर भीड़ में बुराइयों के ख़िलाफ़
जमकर आवाज़ उठाता हूँ,

अकेले में नहीं सोचता मैं 
न्याय-अन्याय के बारे में,
पर भीड़ में खूब चिल्लाता हूँ 
उस अन्याय के ख़िलाफ़ भी 
जो मैं हर रोज़ करता हूँ. 

मैं अकेले में कुछ होता हूँ,
भीड़ में कुछ और,
मैं जो भीड़ में होता हूँ,
उस पर कभी मुझे शर्म आती है,
तो कभी गर्व होता है.

शनिवार, 3 अक्तूबर 2015

१८५. गाँव

मुझे याद है 
पूस की कंपकंपाती सुबहों में 
मुंह अँधेरे उठ जाती थी दादी,
मुझे भी जगा देती थी
और  आँगन के कुँए से 
बाल्टी-भर पानी खींचकर 
उड़ेल देती थी मुझपर
मेरी तमाम ना-नुकर के बावजूद। 

तैयार होकर मैं 
घर की बगिया में जाता था,
जवाकुसुम के अधखिले फूल तोड़कर 
डलिया में सजा देता था. 

फिर हम गाँव की गलियों से 
मंदिर के लिए निकलते थे,
जहाँ मैं भी कर लेता था 
थोड़ी-बहुत पूजा,
चढ़ा देता था प्रतिमा पर 
जवाकुसुम का एक फूल.

अब नहीं रही दादी,
नहीं रहा कुंआ,
नहीं रही बगिया,
जवाकुसुम के अधखिले फूल 
और आधी-अधूरी अर्चना. 

अब नहीं रहीं 
वे पूस की सुबहें,
अब नहीं रहा 
वह मासूम-सा गाँव।