बिना वज़ह कभी-कभी लगती हैं गांठें,
बिना कोशिश कभी-कभी खुलती हैं गाँठें.
तेरी भी हो सकती है, मेरी भी हो सकती है,
ग़लती चाहे जिसकी हो,चुभती हैं गाँठें.
क्या कुछ नहीं है इस मुल्क में लेकिन,
रस्सी नहीं,पीछे खींचती हैं गाँठें.
चंद रोज़ रोक दें तरक्क़ी के सब काम,
पहले मिल के खोल लें बरसों की गाँठें.
सदियों पुरानी अभी खुली नहीं फिर भी,
लगाए चले जा रहे हैं नित नई गाँठें.
बिना कोशिश कभी-कभी खुलती हैं गाँठें.
तेरी भी हो सकती है, मेरी भी हो सकती है,
ग़लती चाहे जिसकी हो,चुभती हैं गाँठें.
क्या कुछ नहीं है इस मुल्क में लेकिन,
रस्सी नहीं,पीछे खींचती हैं गाँठें.
चंद रोज़ रोक दें तरक्क़ी के सब काम,
पहले मिल के खोल लें बरसों की गाँठें.
सदियों पुरानी अभी खुली नहीं फिर भी,
लगाए चले जा रहे हैं नित नई गाँठें.