शुक्रवार, 28 दिसंबर 2018
शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018
शनिवार, 15 दिसंबर 2018
३३७. हँसो
बंद खिड़की की झिर्री से
झाँक रही है तुम्हारी
सहमी-सहमी सी हँसी।
तुम्हारी हँसी, हँसी कम
रुलाई ज़्यादा लगती है,
इससे तो बेहतर था,
तुम थोड़ा रो ही लेती।
हँसना ही है,
तो खोल दो खिड़की,
खोल दो किवाड़,
तोड़ दो ताले,
लाँघ लो देहरी,
फिर पूरे मन से
बिना डर, बिना झिझक,
दिन-दहाड़े,
खुल कर हँसो।
हँसना ही है, तो ऐसे हँसो
कि वे भी निकल आएं दबड़ों से,
जो लंबे अरसे से
हँसना भूल गए हैं।
झाँक रही है तुम्हारी
सहमी-सहमी सी हँसी।
तुम्हारी हँसी, हँसी कम
रुलाई ज़्यादा लगती है,
इससे तो बेहतर था,
तुम थोड़ा रो ही लेती।
हँसना ही है,
तो खोल दो खिड़की,
खोल दो किवाड़,
तोड़ दो ताले,
लाँघ लो देहरी,
फिर पूरे मन से
बिना डर, बिना झिझक,
दिन-दहाड़े,
खुल कर हँसो।
हँसना ही है, तो ऐसे हँसो
कि वे भी निकल आएं दबड़ों से,
जो लंबे अरसे से
हँसना भूल गए हैं।
शुक्रवार, 7 दिसंबर 2018
३३६.पौधे
अनुशासित से पौधे
कितने ख़ुश लग रहे हैं
और कितने सुन्दर !
बहुत मेहनत की है
माली ने इन पर,
कतरी हैं इनकी
पत्तियां-टहनियां,
तब जाकर मिला है इन्हें
इतना सुन्दर रूप.
कोई पौधों से पूछे
कि क्या सचमुच ख़ुश हैं वे,
कैसा लगता है
जब बाँध दिया जाता है उन्हें
एक सीमित दायरे में,
जहाँ से उन्हें
पत्ता-भर झाँकने की भी
अनुमति नहीं है.
सदस्यता लें
संदेश (Atom)