जब से आँगन का
बंटवारा हुआ,
हमने नहीं बनाए
पापड़-अचार,
नहीं बनाई
बड़ी-मंगोड़ी.
हमने नहीं किया
संगीत का कार्यक्रम,
अखंड रामायण-पाठ,
नहीं बजाया ढोल,
नहीं बजाई झींझ,
नहीं रखी
सत्यनारायण-कथा.
हमने नहीं समेटी
मिलके कोई चादर,
नहीं निचोड़ी साड़ी
नहीं बुनी निवार .
अब कोई नहीं चलाता
बेबी साइकिल यहाँ,
बच्चे नहीं बनाते
मिलकर रेलगाड़ी.
कोई नहीं दौड़ता
किसी दूसरे के पीछे,
किसी का नहीं छिलता
अब घुटना यहाँ.
अब नहीं होती यहाँ
पड़ोसनों से गप्पें,
अब नहीं होते यहाँ
बच्चों के झगड़े.
आँगन के बीचों-बीच
जो तुलसी का चौरा था,
उसका पौधा मर गया है,
अब नहीं लगती फेरी वहाँ .
आँगन बँट गया है,
खिंच गई है वहां
अब एक ऊंची दीवार,
कोई खिड़की नहीं है उसमें.
आजकल सूरज
दीवार के इस ओर,
तो चाँद उस ओर चमकता है,
हवा ठिठक जाती है
दीवार के पास आकर.
लोग कहते हैं
कि अब भी बड़े हैं
आँगन के दोनों हिस्से,
पर मुझे छोटे लगते हैं,
छोटे से ज़्यादा अधूरे।
कितना ही बड़ा क्यों न हो
किसी घर का आँगन,
एक पूरे आँगन से
नहीं निकल सकते
दो साबुत आँगन.
जो आँगन बहुत बोलता था,
आजकल चुप है,
आजकल आँगनवाले घर
मुझे बिल्कुल अच्छे नहीं लगते.