कहने को तो यह वसंत है,
पर मुर्दनी छाई है हर तरफ़,
शाख़ें लदी हैं फूलों से,
मगर ख़ुशबू ग़ायब है,
दवाओं की बू आती है उनसे.
जहाँ देखो, काँटे-ही-कांटे हैं,
इंजेक्शन-से चुभते हैं,
हवा में घुटन है,
ऑक्सीजन नहीं है कहीं,
सिलिंडर भी ख़ाली हैं.
पंछी रुक-रुककर पुकारते हैं,
जैसे मरीज़ कराह रहे हों,
बूंदा-बांदी हो जाती है कभी-कभी,
जैसे रुलाई फूट रही हो किसी की.
कुछ हरे पत्ते तो हैं पेड़ों पर,
मगर झर रहे हैं लगातार,
आसमान में चाँद आधा है,
जैसे मास्क लगा रखा हो किसी ने.
इतना गर्म वसंत
पहले तो कभी नहीं देखा,
चिताओं का जलना बंद हो,
तब तो सुहाना हो मौसम.
यह कैसा वसंत है?
क्या यही ऋतुओं का राजा है?
इससे तो पतझड़ अच्छा था,
न जाने यह वसंत कब जाएगा.