शुक्रवार, 30 अप्रैल 2021

५६१.शव परेशान हैं


शवों की क़तार लगी है 

श्मशान के सामने,

जलने को बेताब हैं वे,

परेशान हैं,

नहीं जानते थे 

कि अस्पताल से निकलकर भी 

क़तारों का सिलसिला ख़त्म नहीं होगा. 


ज़िंदा होते,

तो धक्का-मुक्की करते,

आगे निकल जाते,

पर अब तो कोई चारा नहीं है. 


शव चिंता में हैं 

कि चिता तक पहुँचने में 

ज़्यादा देर हुई,

तो वे भी न भाग जाएँ,

जो मुश्किल से साथ आए हैं. 


बुधवार, 28 अप्रैल 2021

५६०.मंजरी



बहुत मंजरी झरी 

आम के पेड़ों से इस बार, 

कोई आंधी-तूफ़ान नहीं था,

फिर भी,न जाने कैसे. 


कैरियाँ भी ख़ूब गिरीं,

छोटी-बड़ी, गिरती ही रहीं,

आम भी टपकते रहे

पकने से पहले. 


आम के पेड़ों का ऐसा हाल 

पहले तो कभी नहीं देखा था,

डराता है यह विध्वंस,

न जाने इन पेड़ों में मंजरी

कभी आएगी या नहीं. 

मंगलवार, 27 अप्रैल 2021

५५९.दुर्घटना



अस्पताल था,

डॉक्टर थे,

नर्सें थीं,

बेड थे,

दवाइयाँ थीं,

सिलिंडर थे,

बस ऑक्सीजन नहीं थी. 


वह इलाज की कमी से नहीं मरा,

लापरवाही से भी नहीं मरा,

उसका मरना महज़ एक दुर्घटना थी. 

शनिवार, 24 अप्रैल 2021

५५८.वसंत



कहने को तो यह वसंत है,

पर मुर्दनी छाई है हर तरफ़,

शाख़ें लदी हैं फूलों से,

मगर ख़ुशबू ग़ायब है,

दवाओं की बू आती है उनसे. 


जहाँ देखो, काँटे-ही-कांटे हैं,

इंजेक्शन-से चुभते हैं,

हवा में घुटन है,

ऑक्सीजन नहीं है कहीं,

सिलिंडर भी ख़ाली हैं. 


पंछी रुक-रुककर पुकारते  हैं,

जैसे मरीज़ कराह रहे हों,

बूंदा-बांदी हो जाती है कभी-कभी,

जैसे रुलाई फूट रही हो किसी की. 


कुछ हरे पत्ते तो हैं पेड़ों पर,

मगर झर रहे हैं लगातार,

आसमान में चाँद आधा है,

जैसे मास्क लगा रखा हो किसी ने. 


इतना गर्म वसंत 

पहले तो कभी नहीं देखा,

चिताओं का जलना बंद हो,

तब तो सुहाना हो मौसम. 


यह कैसा वसंत है?

क्या यही ऋतुओं का राजा है?

इससे तो पतझड़ अच्छा था,

न जाने यह वसंत कब जाएगा. 

गुरुवार, 22 अप्रैल 2021

५५७.रेलगाड़ी



जंगल बहुत घना है,

रात घिर आई है,

सन्नाटा फैला है चारों ओर,

सहमा हुआ है राही. 


अँधेरे को चीरती हुई

पटरियों पर दौड़ी आ रही है 

मुसाफ़िरों-भरी रेलगाड़ी,

उम्मीद जगाती उसकी रौशनी,

सन्नाटा दूर भगाती 

उसकी तेज़ गड़गड़ाहट. 


घने जंगल को बेधती है,

भटके राही को राह दिखा

उसका खोया विश्वास जगाती है

धड़धड़ाकर आती रेलगाड़ी. 



सोमवार, 19 अप्रैल 2021

५५६. कूक



एक अकेली कोयल 

पेड़ पर बैठी कूक रही है,

किसी को फ़ुर्सत नहीं 

कि चुपचाप सुने उसका गीत,

अपने आप में व्यस्त हैं 

सभी के सभी. 


बस एक चिड़िया है,

जो सामनेवाले पेड़ पर बैठी है,

बंद कर दिया है उसने चहचहाना,

उसे तन्मयता से सुनना है 

कोयल का राग. 


कोयल सोचती है,

उसे गाते रहना होगा 

इंसानों के लिए नहीं,

तो चिड़ियों के लिए ही सही. 


शुक्रवार, 16 अप्रैल 2021

५५५. सेमल



लो,गिरा दिए मैंने सारे पत्ते,

अब फूल ही फूल बचे हैं,

पर मेरी अनदेखी अभी जारी है

समझ में नहीं आता, क्या करूं 

कि तुम्हारी नज़र मुझ पर पड़े. 


चलो, मैंने फ़ैसला कर लिया है,

फूल भी गिरा दूंगा एक-एक करके,

बिल्कुल ठूँठ बन जाऊंगा,

तब तुम मेरी ओर देखना,

हैरानी,दया या हिक़ारत से,

पर मेरी अनदेखी मत करना. 

बुधवार, 14 अप्रैल 2021

५५४. माँ



थोड़ी बहुत माँ दिख जाती है 

बहन में, पत्नी में, हर औरत में,

यहाँ तक कि हर मर्द में भी 

झलक मिल जाती है माँ की. 


इतनी ख़ूबियाँ होती हैं माँ में 

कि किसी भी इंसान में 

माँ का कुछ-न-कुछ न मिलना 

लगभग असंभव है,

वैसे ही जैसे एक ही इंसान में 

पूरी की पूरी माँ का मिलना 

लगभग असंभव है. 


अगर आपको एक ही इंसान में 

पूरी की पूरी माँ को देखना हो,

तो अपने घर जाइए

और अपनी माँ को देखिए.  


सोमवार, 12 अप्रैल 2021

५५३.ज़िम्मेदारी



इस जगह एक स्टेशन है,

एक प्लेटफॉर्म भी है यहाँ,

पटरियाँ बिछी हैं सामने, 

यहाँ से होकर जाती हैं रेलगाड़ियाँ 

कोई इस ओर,तो कोई उस ओर.


किस गाड़ी में चढ़ना है,

किस तरफ़ जाना है,

जाना भी है या नहीं,

मुसाफ़िर को तय करना है. 


रास्ते में आते हैं 

एक के बाद एक स्टेशन,

किस पर उतरना है,

किसे छोड़ देना है,

मुसाफ़िर को तय करना है. 


स्टेशन,पटरियाँ, रेलगाड़ियाँ -

सब साधन हैं बस,

किनका इस्तेमाल करना है,

करना भी है या नहीं,

कैसे करना है,

कितना करना है,

कब करना है,

मुसाफ़िर को ही तय करना है. 


ज़िम्मेदारी उसे ही लेनी पड़ती है,  

जिसे मंज़िल पर पहुँचना होता है. 

शनिवार, 10 अप्रैल 2021

५५२.फ़ोटो में पिता


बचपन में जब मैं खेलता था,

दीवार के सहारे खड़े होकर 

मुझे देखते रहते थे पिता,

मेरे गिरने पर बेचैन होते थे,

अच्छे खेल पर शाबाशी देते थे,

बुरे पर नाराज़ होते थे. 


मैं अब भी गिरता हूँ,

मेरा प्रदर्शन कभी अच्छा,

तो कभी बुरा होता है,

पर अब पिता कुछ नहीं कहते,

बस चुपचाप दीवार से चिपककर 

मुझे ताकते रहते हैं. 

बुधवार, 7 अप्रैल 2021

५५१.शिव से




शिव,

समय आ गया है 

कि तुम गंगा को 

फिर से जटाओं में समेट लो. 


गंगा ही क्यों,

और भी बहुत सी नदियाँ हैं,

जो मर रही हैं,

तुम्हारी जटाओं की 

सुरक्षा चाहती हैं. 


शिव,

सब को पनाह दो,

बचा लो मृतप्राय नदियों को 

और अपनी जटाओं को 

तब तक मत खोलना,

जब तक तुम्हें यक़ीन न हो जाय 

कि तुम्हारी जटाओं से निकलकर 

नदियाँ सुरक्षित रहेंगी. 

शनिवार, 3 अप्रैल 2021

५५०. तिनका



मैं एक तिनका हूँ,

उड़ा जा रहा हूँ,

लम्बी यात्राएँ तय की हैं मैंने,

न जाने कहाँ-कहाँ होकर 

यहाँ तक पहुंचा हूँ मैं. 


पंख नहीं थे मेरे,

फिर भी देर तक 

आसमान में तैरता रहा मैं. 


अब जब रुक गया हूँ,

ज़मीन पर गिरा हूँ,

तब समझ में आया है 

कि मैं उड़ रहा था

हवाओं के सहारे,

मेरी अपनी तो कोई 

औकात ही नहीं थी.  

गुरुवार, 1 अप्रैल 2021

५४९.उजड़ी झोंपड़ियाँ

 राग दिल्ली वेबसाइट(https://www.raagdelhi.com/) पर प्रकाशित मेरी कविता.




इन उजड़ी झोंपड़ियों के आसपास
कुछ टूटी चूड़ियां हैं,
कुछ बदरंग बिंदियाँ हैं,
कुछ टूटे फ्रेम हैं चश्मों के,
कुछ तुड़ी-मुड़ी कटोरियाँ हैं.

यहाँ कुछ अधजली बीड़ियाँ हैं,
कुछ कंचे हैं, कुछ गोटियाँ हैं,
तेल की ख़ाली बोतलों की तलहटी में
देसी शराब की कुछ बूँदें है.

जली फुलझड़ियों के तार हैं,
कुछ टूटे-फूटे दिए हैं,
पक्के रंगोंवाली रंगोली है,
जिसके कई रंग मिट गए हैं.

यहाँ चारपाई की रस्सियाँ हैं,
कुछ ईंटें हैं, जो जुड़ती थीं,
तो पाया बन जाती थीं,
कुछ बुझे हुए चूल्हे हैं,
ठंडी पड़ चुकी राख है.

सभी सबूत मौजूद हैं यहाँ
कि झोपड़ियों में लोग रहते थे,
नहीं हैं तो इस बात के संकेत
कि ये झोपड़ियां उजड़ीं कैसे
और इन्हें उजाड़ा किसने.