धीरे-धीरे रफ़्तार पकड़ रही है गाड़ी,
छूट गया पीछे स्टेशन,
ओझल हो गए परिजन,
जाने-पहचाने मकान,
गली-कूचे, सड़कें,
पेड़,चबूतरे- सब कुछ.
पीछे रह गया मेरा शहर,
धीरे-धीरे छूट जाएगा
मेरा ज़िला, मेरा सूबा,
पीछे रह जाएगी यह हवा,
इसकी ताज़गी,
यह मिट्टी, इसकी ख़ुशबू.
रफ़्तार के नशे में हूँ मैं,
आँखें मुंदी हैं मेरी,
एक नई मंज़िल के सपने का
ख़ुमार है मुझ पर.
नई मंज़िल न जाने कैसी होगी,
न जाने होगी भी या नहीं,
पर जो था, जो है,
सब छूटता जा रहा है.