इन दिनों मुझसे
रूठी हुई है मेरी कविता.
कभी वे भी दिन थे,
जब एक कप चाय पर
मुकम्मल हो जाती थीं
मेरी कई सारी कविताएँ.
अब लग जाता है मेज़ पर
ख़ाली कपों का ढेर,
पर काग़ज़ है
कि कोरा ही पड़ा रहता है.
शायद चाय पी-पीकर
ऊब गई है मेरी कविता,
अब क्या पिलाऊँ उसे
कि लौट आए मेरी कविता.