उस दिन मैंने देखा,
कबाड़ी के सामान में
कुछ पुरानी किताबें थीं,
तुड़ी-मुड़ी, पीली-सी,
कुछ किताबें स्वस्थ भी थीं,
मेन्टेन कर रखा था उन्होंने ख़ुद को.
कातर नज़रों से मुझे
देख रही थीं किताबें,
सुबक-सुबक कर कह रही थीं,
हमें ख़रीद लो किलो के भाव,
सजा देना अपने बुक-शेल्फ़ में,
भले पढ़ना मत.
किताबें कह रही थीं,
जब हमें फाड़ा जाता है
और हमारे पन्नों में
भेलपुरी परोसी जाती है,
तुम्हें क्या बताएं,
हमें कितना दर्द होता है?