कितना अच्छा होता है बचपन,
न कोई चिंता,न कोई फ़िक्र,
न कोई बोध अपमान का,
जो घर बना ले मन में,
न कोई घृणा का भाव,
जो खाता रहे खुद को ही,
न कोई गुस्सा,
जो उबलता रहे मन-ही-मन,
फिर फट पड़े कभी अचानक.
काश कि बचपन कभी खत्म न होता,
या बचपन में लौटना संभव होता,
या कम-से-कम इतना हो जाता
कि आदमी पहले बड़ा होता,
फिर बूढ़ा
और अंत में बच्चा.
न कोई चिंता,न कोई फ़िक्र,
न कोई बोध अपमान का,
जो घर बना ले मन में,
न कोई घृणा का भाव,
जो खाता रहे खुद को ही,
न कोई गुस्सा,
जो उबलता रहे मन-ही-मन,
फिर फट पड़े कभी अचानक.
काश कि बचपन कभी खत्म न होता,
या बचपन में लौटना संभव होता,
या कम-से-कम इतना हो जाता
कि आदमी पहले बड़ा होता,
फिर बूढ़ा
और अंत में बच्चा.