धड़धड़ाती हुई ट्रेन
गुज़रती है पुल के ऊपर से,
नीचे बह रही है विशाल नदी,
उसकी लहरें उछल-उछलकर
लील जाना चाहती है सब कुछ.
आँखें बंद कर लेता हूँ मैं,
विनती करता हूँ पटरियों से,
संभाले रखना ट्रेन को,
प्रार्थना करता हूँ ट्रेन से,
रुकना नहीं, सर्र से निकल जाना.
भूल जाता हूँ मैं
कि यह आख़िरी नदी नहीं है,
आगे और भी नदियाँ हैं,
जिन्हें मुझे पार करना है.