तुम्हें क्या चाहिए,
कहती क्यों नहीं?
क्या अच्छा लगता है,
बताती क्यों नहीं?
तुम हंसती क्यों नहीं,
कभी रोती क्यों नहीं?
बोलने के लिए आँखें ही बहुत हैं,
तुम्हारे मुंह में तो फिर भी ज़बान है,
एक दिल है तुम्हारे अंदर,
जो धड़कता है,
एक दिमाग़ है,
जो सोचता है.
तुम कहती हो,
तुम पत्थर हो गई हो,
सच में हो गई हो,
तो चोट पहुंचाओ किसी को,
सच में हो गई हो,
तो नाचना बंद करो
चक्करघिन्नी की तरह.