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शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

१९७. क़ानून

मैं नहीं मानता 
कि क़ानून अँधा होता है. 
क़ानून बनानेवाले जानते हैं 
कि किसके लिए 
कैसा क़ानून बनाना है,
लागू करनेवाले जानते हैं 
कि किसके मामले में 
कैसे लागू करना है,
व्याख्या करनेवाले जानते हैं 
कि किस व्यक्ति के लिए 
क़ानून का क्या अर्थ होता है.

जिसे क़ानून की ज़रूरत 
सबसे ज़्यादा होती है,
बस वही नहीं जानता 
कि क़ानून क्या होता है,
उसे लागू कौन करता है,
कैसे करता है,
कि उसकी व्याख्या भी होती है.

क़ानून अँधा नहीं होता,
दरअसल जिसे क़ानून की 
सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है,
वह अँधा होता है. 

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

१९६. व्यस्त




मैं बहुत व्यस्त हूँ,
ज़िन्दगी भर रहा,
न औरों के लिए,
न अपनों के लिए,
यहाँ तक कि
ख़ुद के लिए भी 
वक़्त ही नहीं मिला .

अब हिसाब करता हूँ,
तो पाता हूँ कि
मेरी व्यस्तता 
किसी के काम नहीं आई.

तुम सब जो व्यस्त हो,
ज़रा साँस ले लो,
और सोच लो कि
तुम किसलिए व्यस्त हो.

कहीं ऐसा तो नहीं कि
तुम एक विशाल वृत्त की 
परिधि पर हो, 
दौड़ रहे हो,
हांफ रहे हो,
पर केंद्र से तुम्हारी दूरी 
उतनी ही बनी हुई है.

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2015

१९५. मेरा शहर

आजकल मेरा शहर चर्चा में है.

हो रहे हैं रोज़ बलात्कार,
बढ़ती जा रही है 
नाबालिगों की तादाद 
अपराधियों में,
भरी बसों में भी है ख़तरा,
अपने घर भी नहीं कोई महफ़ूज़.

हर कोई लिए घूमता है 
चाकू-छुरियां, तमंचे,
छोटी-सी बात पर 
चल जाती हैं गोलियां.

पूरा हो जाता है कभी भी 
किसी का भी समय,
पार्किंग को लेकर,
पैसों को लेकर,
जाति,भाषा,धर्म -
किसी भी मुद्दे को लेकर.

आजकल मेरा शहर चर्चा में है,
परेशान और शर्मशार है वह,
मेरा शहर सोचता है 
कि काश ये गली-मोहल्ले छोड़कर 
वह किसी और शहर में रह पाता.

शनिवार, 5 दिसंबर 2015

१९४. प्यार


जो चकरी की तरह घूमे,
वह नई जवानी का आकर्षण है;
जो फुलझड़ी की तरह जले,
वह नूतन प्रेम का एहसास है;
जो अनार की तरह चले,
वह जवानी का उन्माद है;
जो बम की तरह फटे,
वह विरोध के ख़िलाफ़ विद्रोह है;
जो दिए की तरह जले,
वह जीवन-भर का प्यार है.

शनिवार, 28 नवंबर 2015

१९३. कोशिश



यह सच है 
कि धरती और आसमान 
एक दूसरे से मिल नहीं सकते,
पर मिलने की 
कोशिश तो कर सकते हैं.

हवाएं धरती से धूल उड़ाती हैं,
आकाश की ओर ले जाती हैं,
फिर थककर बैठ जाती हैं.

सूरज अपनी किरणों से 
बिखरा पानी सोखता है,
जो बादल बन जाता है,
बरस जाता है,
मिट्टी में मिल जाता है. 

यह सब बेकार नहीं है,
धरती और आकाश,
जो कभी मिल नहीं सकते,
उनकी मिलने की कोशिश है.

हो सकता है 
कि कोशिश से मंजिल न मिले,
पर कुछ न कुछ तो मिल ही जाता है,
क्योंकि कोशिश कभी बेकार नहीं होती.

शनिवार, 21 नवंबर 2015

१९२. बूँद से


बूँद, अब तो समझ जाओ,
बेकार की ज़िद छोड़ो,
वह आस छोड़ो
जो पूरी नहीं हो सकती. 

आसमान से तुम सीधे 
ज़मीन पर नहीं 
पत्ते पर गिरी,
यह तुम्हारी नियति थी,
पर तुम्हें हमेशा 
पत्ते पर नहीं रहना है.

याद करो वह समय,
जब तुम पत्ते के 
ऊपरी छोर पर थी,
अब फिसलते-फिसलते 
उसकी नोक पर आ पहुंची हो,
बस कुछ पल और,
तुम मिट्टी में मिल जाओगी.

जिस पत्ते पर तुमने 
आश्रय लिया है,
जिस टहनी पर 
पत्ते ने आश्रय लिया है,
जिस पेड़ पर 
टहनी ने आश्रय लिया है,
सब गिर जाएंगे,
मिट्टी में मिल जाएंगे.

दुःख न करो,
हँसते-हँसते गिर जाओ,
मिट्टी में मिल जाओ,
बूँद, सच को स्वीकार करो. 

शुक्रवार, 13 नवंबर 2015

१९१. बहस के बीच में

ताज़ा ख़बरों का पोस्टमार्टम हो रहा था,
किसी ने कुएं में छलांग लगा दी थी,
फ़सल सूख गई थी उसकी.

पुत गई थी उसके चेहरे पर स्याही,
मनाही के बाद भी जो बोलना चाहता था,
क़त्ल हो गया था किसी का अपने ही घर में,
खा लिया था उसने वह जो वर्जित था,
फेंक दी थी आग किसी ने खिड़की से,
ज़िन्दा जला दिया था सोते बच्चों को,
किसी भाई ने दबा दिया था बहन का गला,
ज़िद थी उसकी कि शादी मर्ज़ी से करेगी,
एक छोटी-सी बच्ची का अपनों ने ही 
कर दिया था बलात्कार.

गर्मागर्म बहस के बीच एक बच्चा उठा,
बोला,' बंद करो बहस, मेरी ओर देखो,
मैं अभी अनगढ़, कच्ची मिट्टी सा,
बोलो, मुझे कैसा बनाओगे, कैसे बनाओगे?'

सोमवार, 9 नवंबर 2015

१९०. आनेवाली दिवाली


आनेवाली है दिवाली,
जलेंगे दिए,
बनेंगे पकवान,
सजेगी रंगोली. 

दिए भले कम हों,
पर ज़्यादा घरों में जलें,
पकवान भले कम बनें,
पर ज़्यादा होंठों तक पहुंचे,
रंगोली के रंग भले कम हों,
पर ज़्यादा आंगनों में सजें।

इस बार की दिवाली 
चमकीली भले कुछ कम हो,
पर उसकी रोशनी का दायरा 
पिछली बार से थोड़ा बड़ा हो.

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2015

१८९. मेहमान

सड़कें बंद हैं,
रास्ता रोके खड़े हैं 
पुलिस के बैरियर,
आड़ी-तिरछी बेतरतीब 
बिखरी हुई हैं गाड़ियाँ,
सूई भर जगह नहीं सरकने को,
हाल बेहाल है 
धुएं और गर्मी से,
बीमार सोए हैं पिछली सीटों पर 
अस्पताल के इंतज़ार में,
आख़िरी सांसें चल रही हैं कइयों की,
कई मांओं ने जन दिए हैं 
ऑटो में ही अपने बच्चे. 

लगता है, कोई विशिष्ट मेहमान 
आज शहर में आया है. 

रविवार, 25 अक्तूबर 2015

१८८. पट्टेवाले कुत्ते



कुत्ते जो बंद कमरों में 
नर्म बिस्तर पर सोते हैं,
बढ़िया खाना खाते हैं,
प्यार से पुकारे जाते हैं,
दुलारे-पुचकारे जाते हैं,
बड़े बेचारे-से लगते हैं,
जब गले में पट्टा डालकर 
सैर पर ले जाए जाते हैं. 

इन्हें देखकर भौंकते हैं 
गली के आवारा कुत्ते 
और ये पट्टे से बंधे 
चुपचाप चले जाते हैं. 

बिरादरी से अलग-थलग,
इन्हें देखकर लगता है 
कि इन्हें सिर्फ़ दुम दबाकर 
निकल जाना आता है,
न काटना आता है,
न भौँकना. 

शनिवार, 17 अक्तूबर 2015

१८७. कविताओं का विषय

अब नहीं लिखूंगा 
मैं कोई प्रेम कविता,
वक़्त का तक़ाज़ा है 
कि अब बदल दें कवि     
अपनी कविताओं का विषय. 

सदियों पुराना विश्वास 
जब टूट जाय चरमराकर, 
मंदिरों का उपयोग 
जब होने लगे उकसाने को,
जब निकल पड़े उन्मत्त भीड़
किसी अपने की तलाश में 
खून की प्यासी होकर,
जब सरे आम किसी का क़त्ल 
इसलिए कर दिया जाय 
कि उसने जो खाया था,
उसे वह नहीं खाना चाहिए था,
तो कैसे लिख सकता है कोई कवि 
कोई प्रेम कविता?

इसलिए मैं कहता हूँ 
कि अब नहीं लिखूंगा 
कोई प्रेम कविता, 
हालाँकि मैं प्रेम कविताओं का कवि हूँ. 



शनिवार, 10 अक्तूबर 2015

१८६. भीड़ में मैं

मैं जब भीड़ में होता हूँ,
तो मैं नहीं रहता,
बिल्कुल बदल जाता हूँ.

अकेले में मैं शांत हूँ,
पर भीड़ में हिंसक हो जाता हूँ,
गन्दी गालियां बक सकता हूँ,
हाथापाई कर सकता हूँ,
पत्थर फेंक सकता हूँ,
यहाँ तक कि किसी की
जान भी ले सकता हूँ.

अकेले में मुझे परवाह नहीं
नैतिकता और सिद्धांतों की,
पर भीड़ में बुराइयों के ख़िलाफ़
जमकर आवाज़ उठाता हूँ,

अकेले में नहीं सोचता मैं 
न्याय-अन्याय के बारे में,
पर भीड़ में खूब चिल्लाता हूँ 
उस अन्याय के ख़िलाफ़ भी 
जो मैं हर रोज़ करता हूँ. 

मैं अकेले में कुछ होता हूँ,
भीड़ में कुछ और,
मैं जो भीड़ में होता हूँ,
उस पर कभी मुझे शर्म आती है,
तो कभी गर्व होता है.

शनिवार, 3 अक्तूबर 2015

१८५. गाँव

मुझे याद है 
पूस की कंपकंपाती सुबहों में 
मुंह अँधेरे उठ जाती थी दादी,
मुझे भी जगा देती थी
और  आँगन के कुँए से 
बाल्टी-भर पानी खींचकर 
उड़ेल देती थी मुझपर
मेरी तमाम ना-नुकर के बावजूद। 

तैयार होकर मैं 
घर की बगिया में जाता था,
जवाकुसुम के अधखिले फूल तोड़कर 
डलिया में सजा देता था. 

फिर हम गाँव की गलियों से 
मंदिर के लिए निकलते थे,
जहाँ मैं भी कर लेता था 
थोड़ी-बहुत पूजा,
चढ़ा देता था प्रतिमा पर 
जवाकुसुम का एक फूल.

अब नहीं रही दादी,
नहीं रहा कुंआ,
नहीं रही बगिया,
जवाकुसुम के अधखिले फूल 
और आधी-अधूरी अर्चना. 

अब नहीं रहीं 
वे पूस की सुबहें,
अब नहीं रहा 
वह मासूम-सा गाँव।

शुक्रवार, 25 सितंबर 2015

१८४. प्रेम

लोगों को मेरी प्रेम कविताएँ पसंद नहीं,
पर मुझे हमेशा लगता है 
कि मैं प्रेम कविताओं का कवि हूँ. 

मुझे अपनी कविताएँ अच्छी लगती हैं,
जब वे प्रेम के बारे में होती हैं,
पर मैं यह नहीं समझ पाता 
कि जो चीज़ मुझमें है ही नहीं,
वह मेरी कविताओं में कैसे आ जाती है 
और वह भी इतने असरदार तरीक़े से. 

अगर कोई मुझे बता दे 
कि अपनी कविताओं का प्रेम 
मैं अपने स्वभाव में कैसे लाऊँ, 
तो मैं इस बात के लिए तैयार हूँ 
कि फिर कभी प्रेम कविताएँ नहीं लिखूँ. 

शुक्रवार, 18 सितंबर 2015

१८३. असहाय एकलव्य

अर्जुन, कुरुक्षेत्र में एक युद्ध 
तुमने लड़ लिया, जीत लिया,
गुरु द्रोण को भी मार दिया,
अब तुम्हें राज-पाट चलाना है,
जीत का फल भोगना है,
पर बहुत से धर्म-युद्ध 
अभी भी लड़े जाने हैं. 

अर्जुन, विश्व के सबसे बड़े धनुर्धर,
तुम्हारे पास लड़ने का समय नहीं 
और मैं लड़ नहीं सकता,
क्योंकि मैंने तो अपना अंगूठा 
तुम्हें सर्वश्रेष्ठ बनाने के लिए 
कब का गुरु-दक्षिणा में दे दिया था. 

शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

१८२. अधबना मकान

हमारा प्यार 
जैसे अधबना मकान,
ईंट-ईंट जोड़ी,
दीवारें बनाईं,
सीमेंट,सरिया,
बजरी-रोड़ी,
न जाने क्या-क्या मिलाया,
तब जाकर बना 
यह अधबना मकान। 

फिर क्यों हार मान ली,
क्यों छोड़ दिया अधूरा, 
थोड़ी-सी कोशिश करते 
तो पूरा हो जाता,
घर बन जाता यह 
अधबना मकान. 

अगर अधूरा ही छोड़ना था,
तो शुरू हो क्यों किया ?
जिधर मंज़िल ही नहीं थी,
उधर चले ही क्यों ?
क्यों देखे हमने रंगीन सपने 
जब करना ही नहीं था हमें 
गृह-प्रवेश… 


शनिवार, 29 अगस्त 2015

१८१. बहन



मुझे याद आती हैं
वे बचपन की बातें,
लूडो,सांप-सीढ़ी का खेल,
आम के पेड़ से कैरियाँ तोड़ना,
मुंह अँधेरे उठकर
बगीचे से फूल चुनना.

मुझे याद आता है
मंदिर में पलाथी मार कर
साथ-साथ पूजा करना,
दुर्गापूजा के पंडालों में घूमना,
सज-धजकर विसर्जन देखना.

हाँ, याद आता है
रात-रात भर जागकर
अंत्याक्षरी खेलना,
छोटी-छोटी बात पर झगड़ना,
फिर बिना देर किए
सुलह कर लेना.

मुझे याद आता है
कि मेरी छोटी-छोटी ज़रूरतों का
कितना ध्यान था तुम्हें,
कभी नहीं भूलती थी तुम
कि मुझे भिंडी की भाजी
और संतरे बहुत पसंद थे.

मुझे याद आती है
मेरी बीमारी में तुम्हारी उदासी,
मेरी सफलता में तुम्हारी ख़ुशी,
मेरी ख़ुशी में तुम्हारी हंसी.

तुमसे मैंने जाना
कि किस तरह बहनें
एक दिन माँ जैसी हो जाती हैं,
फ़र्क़ बस इतना होता है
कि वे उम्र में छोटी होती हैं
और एक न एक दिन उन्हें
पराए घर जाना होता है.

शुक्रवार, 21 अगस्त 2015

१८०. क्षितिज



क्षितिज वह जगह है
जहाँ धरती और आकाश
मिलते नहीं हैं,
पर मिलते से लगते हैं.

हम सब चाहते हैं
कि धरती और आकाश मिलें,
उनकी युगों-युगों की कामना
पूरी हो जाय,
उनकी तपस्या का उन्हें
फल मिल जाय.

अंतस की गहराइयों से
जो हम देखना चाहते हैं,
हमारी आँखें हमें
वही दिखाती हैं.

इसलिए हमें लगता है
कि धरती और आकाश
दूर कहीं मिल रहे हैं,
जबकि वे मिलते नहीं हैं,
वे कभी मिल ही नहीं सकते.

शुक्रवार, 14 अगस्त 2015

१७९. आईने में मैं

कई चेहरे मैंने देखे आईने में,
सब वहां मौजूद थे,
सब पहचाने थे,
सिवाय एक चेहरे के 
जो न पहचाना था,
न वहां मौजूद था.

बड़ी कोशिश की मैंने,
बहुत ज़ोर डाला दिमाग पर,
पर नहीं पहचान पाया 
वह अनजाना चेहरा. 

थक-हारकर मुझे 
पूछना पड़ा किसी से,
' यह अनजाना चेहरा, 
जो दिख रहा है आईने में,
किसका है ?'
वह हंसा, बोला, 'तुम्हारा'.  

शुक्रवार, 7 अगस्त 2015

१७८. झील में चाँद

आधी रात को जब 
गहरी नींद में सोई थी झील,
शरारत सूझी आम के पेड़ को,
उसने एक पका आम,
जो लटक रहा था 
झील के ऊपरवाली डाली से,
टप्प से टपका दिया. 

चौंक कर उठी झील,
डर के मारे चीखी,
गुस्से की तरंग उठी उसमें,
थोड़ा झपटी वह पेड़ की ओर,
पर छू नहीं पाई उसे,
कसमसा के रह गई.

दूर आकाश में चमक रहा था चाँद,
सब देख रहा था वह,
मुस्करा रहा था अपनी चालाकी पर,
रात वह भी तो उतर गया था 
झील में चुपके से,
इतना चुपके से 
कि झील को पता ही नहीं चला. 

शनिवार, 25 जुलाई 2015

१७७. सितारा


मैंने चाहा कि वह सितारा 
जो धीरे-धीरे बुझ रहा था,
उसे नई ज़िन्दगी दे दूँ,
फिर से प्रज्वलित कर दूँ। 

मैंने चाहा कि किसी तरह 
आसमान तक पहुँचू ,
उसे कहूँ कि तुम अकेले नहीं,
मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूँ. 

पर सितारे को यह मंज़ूर नहीं था,
उसे लगा कि मैं ज़मीन पर हूँ 
और वह ऊपर आसमान में,
मेरा और उसका क्या मेल. 

सितारे को मंज़ूर नहीं था 
मुझसे मदद लेना, 
उसे मंज़ूर नहीं था 
मेरा हाथ थामना,
उसे बुझना मंज़ूर था. 

शनिवार, 11 जुलाई 2015

१७६. माँ

वह नहीं कर सकती 
अंग्रेज़ी में गिटपिट,
खा नहीं सकती 
कांटे-चम्मच से खाना,
नहीं कोई उसको 
पश्चिमी संगीत की समझ,
अंजान है वह अंग्रेज़ी फ़िल्मों से.

नहीं आता उसे 
एस.एम.एस.करना,
अकाउंट नहीं उसका 
फ़ेसबुक-ट्विटर पर,
व्हाट्स एप के बारे में 
कुछ नहीं सुना उसने.

सलीका नहीं है उसे 
बातचीत करने का,
जीवन जीने का,
कर सकती है तुम्हें 
शर्मिंदा कभी भी.

तुम चाहो तो दूर रखो उसे,
परिचय मत दो उसका,
मत कहो किसी से 
कि वह तुम्हारी माँ है,
पर कोई नहीं कह सकता 
कि वह नहीं जानती 
प्यार करना, ममता लुटाना,
ऐसा हो ही नहीं सकता,
क्योंकि वह जैसी भी है,
माँ है.

शुक्रवार, 3 जुलाई 2015

१७५.भगीरथ से



भगीरथ, तुम जो गंगा यहाँ लाए थे,
अब वह पहले-सी नहीं रही,
बुरा हाल कर दिया है हमने उसका,
घरों,बाज़ारों और कारखानों की 
गंदगी भर दी है उसमें,
नाले जैसा बना दिया है उसको.

अब तुम्हारी गंगा हांफ रही है,
हमारी ज़्यादतियों से कांप रही है,
थकी-थकी सी, रुकी-रुकी सी 
लड़खड़ाकर सागर तक जा रही है.

भगीरथ,
तुमने जो उपहार हमें दिया था,
हम उसे संभाल नहीं सके,
हमने उसे मार-मार कर ज़िन्दा रखा,
हम उसके लायक ही नहीं थे.

तुमसे विनती है 
कि तुम अपनी गंगा वहीँ ले जाओ,
जहाँ से उसे लाए थे,
वहां उसे साफ़ रखना, खुश रखना.

अब फिर कभी उसे 
किसी ग्रह या उपग्रह पर ले जाओ, 
तो पूरी पड़ताल कर लेना,
कहीं ऐसा न हो 
कि वहां भी तुम्हारी गंगा के साथ 
वैसा ही सलूक किया जाय 
जैसा हमने पृथ्वी पर किया था. 

शुक्रवार, 19 जून 2015

१७४. गौरैया


खुली खिड़की के पल्ले पर 
आज फिर आ बैठी है गौरैया,
चूं-चूं , चीं-चीं से 
उठा रखा है घर सिर पर.

गर्म हवाएं घुस रही हैं,
झुलस रहा है कमरा,
पर खुली रहने दो खिड़की,
खामोश रहने दो ए.सी.  को,
कहीं उड़ न जाय 
पल्ले पर बैठी गौरैय्या.

अबके जो उड़ी
तो शायद फिर न सुने 
उसकी चूं-चूं , चीं-चीं ,
अबके जो उड़ी
तो शायद फिर कभी 
दिखाई न दे गौरैय्या.

शनिवार, 13 जून 2015

१७३. छलनी


मुझमें कुछ डालो,
तो ध्यान रखना,
मैं सब कुछ अपने में 
समेटकर नहीं रखती.

ऐसा नहीं है 
कि जो मैं रख लेती हूँ,
वही अच्छा होता है,
कभी-कभी जो अच्छा होता है,
उसे मैं निकाल भी देती हूँ.

जो मैं निकाल देती हूँ,
उसे ध्यान से देख लेना,
हो सकता है, वही अच्छा हो,
उसे फेंक मत देना
और जो मैं रख लेती हूँ,
उसे भी देख लेना,
हो सकता है कि कुछ ऐसा हो,
जो बिल्कुल बेकार हो.

आँख मूंदकर मुझ पर 
भरोसा मत करना,
मैं जो रख लेती हूँ,
कभी अच्छा होता है,
तो कभी बुरा,
रखने-छोड़ने के मामले में 
मैं बिलकुल तुम्हारे मन जैसी हूँ.

शनिवार, 6 जून 2015

१७२. पैसेंजर ट्रेन


मुझे पसंद है पैसेंजर ट्रेन,
धीरे-धीरे चलती है,
हर स्टेशन पर रूकती है,
हर किसी के लिए
दरवाज़े खुले रखती है.

यह एक्सप्रेस ट्रेन नहीं 

कि छोटे स्टेशनों को देखकर 
अपनी रफ़्तार बढ़ा दे,
प्लेटफार्म पर खड़े यात्रियों का 
मुंह चिढ़ाती हुई 
सर्र से निकल जाय.

पैसेंजर ट्रेन जल्दी में नहीं होती,

मुझे योगी-सी लगती है,
कोई भेदभाव नहीं करती,
मुझे अपनी-सी लगती है,
नहीं नोचती ज़ेब
कामगारों-मज़दूरों की,
सबका स्वागत करती है,
सबको जगह देती है.

मुझे पैसेंजर ट्रेन पसंद है,

मैं जब-जब इसे देखता हूँ,
मुझे महसूस होता है 
कि इसमें इंसानियत बहुत है.

शुक्रवार, 29 मई 2015

१७१. अगर तू है

भगवान, मैंने सुना है, तू है,
अगर है, तो कुछ ऐसा कर दे 
कि मैं बेसहारों का सहारा,
बेघरों की छत बन जाऊं,
मैं गूंगों की ज़ुबां,
लंगड़ों की टाँगें,
अंधों की आँखें बन जाऊं.

मैं रोते बच्चों का खिलौना,
मरीज़ों की दवा बन जाऊं,
भूल चुके हैं उनके अपने जिनको,
मैं उनकी उम्मीद का दामन बन जाऊं.

तोड़ कर रख दे जो हौसला अँधेरे का,
मैं वो रौशन दिया बन जाऊं,
जीवन में जिनके पसर चुकी है रात,
मैं उनके लिए नई सुबह बन जाऊं.

ठण्ड की रातें जो गुज़ारते हैं खुले में,
मैं उनके बदन का लिहाफ़ बन जाऊं,
भीगी रहती हैं जिनकी आँखें हरदम,
मैं उनके होंठों की मुस्कान बन जाऊं.

भगवान, तू है तो कुछ ऐसा कर दे,
मैं अपने-पराए से ऊपर उठ जाऊं,
अभी जो मैं हूँ, मैं वो न रहूँ, 
ऐसा कर दे कि कुछ अलग हो जाऊं.

शुक्रवार, 22 मई 2015

१७०. बेड़ियाँ

न जाने कब से मैं 
खोल रहा हूँ बेड़ियाँ,
पर एक खोलता हूँ,
तो दूसरी लग जाती है.

तरह-तरह की बेड़ियाँ,
अनगिनत बेड़ियाँ -
कभी अहम की,
कभी पूर्वाग्रह की,
कभी स्वार्थ की,
कभी लालच की,
कभी झूठ की,
कभी घृणा की.

दरअसल ये बेड़ियाँ 
मैंने खुद ही बनाई हैं,
खुद को ही पहनाई हैं,
ये बेड़ियाँ मैं 
खुद ही खोलता हूँ 
और खुद ही लगाता हूँ.

दरअसल ये बेड़ियाँ 
अब मेरी ज़रूरत नहीं,
मेरी आदत बन गई हैं.

शुक्रवार, 15 मई 2015

१६९. पटरी पर सोनेवालों से

गहरा रही है रात,
दुबके पड़े हैं सब घरों में,
चहचहाना बंद है परिंदों का,
सो रहे हैं वे भी घोंसलों में,
सुनसान पड़ी हैं सड़कें,
दूर गली में भौंक रहा है 
कोई आवारा कुत्ता,
पर भ्रम में मत रहना,
कहीं सो न जाना.

हो सकता है,
जी-भर शराब पीकर 
निकल पड़ा हो कोई,
अपनी आलीशान कार में,
हवा की रफ़्तार से.

कोई ज़रूरी नहीं 
कि वह सड़क पर चले,
पटरी पर भी चल सकता है,
तुम्हें कुचल भी सकता है,
परिवार के साथ या अकेले,
जैसा वह चाहे.

पटरी पर सोनेवालों, उठो,
कानून का पालन करो,
क्या सुना नहीं तुमने,
जानकारों का कहना है 
कि पटरी चलने के लिए होती है,
सोने के लिए नहीं.

शुक्रवार, 8 मई 2015

१६८. तोड़े गए फूल

मत पहनाओ मुझे फूलों का हार,
मत स्वागत करो मेरा गुलदस्तों से,
मेरी शव-यात्रा को भी बख्श देना,
मत सजाना मेरा जनाज़ा फूलों से. 

उन्हें खिल लेने दो डाल पर,
जी लेने दो अपनी ज़िन्दगी,
लहलहा लेने दो हवाओं के साथ,
नहा लेने दो बारिश में,
महसूस लेने दो बदन पर 
धूप और चांदनी,
जकड़ लेने दो आलिंगन में 
ओस की बूँद,
फिर उन्हें झर जाने दो,
सूख जाने दो उन्हें,
मिट्टी में मिल जाने दो.

डाल से तोड़े गए फूल 
गुमसुम-से होते हैं,
मुझे बिल्कुल अच्छे नहीं लगते,
ऐसे फूल मुझे काँटों से लगते हैं
और उन्हीं की तरह चुभते हैं.

शनिवार, 2 मई 2015

१६७. द्रोण से

द्रोण, एकलव्य से गुरु-दक्षिणा मांगते
क्या तुम्हें शर्म नहीं आई ?
और दक्षिणा भी क्या मांगी तुमने,
दाहिने हाथ का अंगूठा!
तुम्हारी मांग में ही छिपी थी 
तुम्हारी दुर्भावना, तुम्हारी अमानवीयता.
किस हक़ से मांगी तुमने गुरु-दक्षिणा ?
एकलव्य के लिए तुमने किया ही क्या था?

द्रोण, तुमने जो पाप किया,
उसका फल आखिर तुम्हें मिल ही गया,
महाभारत के युद्ध में तुम्हें 
अपने प्रिय शिष्य से लड़ना पड़ा,
उसी अर्जुन के हाथों तुम्हारा वध हुआ,
जिसे सर्वश्रेष्ठ बनाने के लिए 
तुमने एक निरीह आदिवासी से 
उसका अंगूठा छीना था. 

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2015

१६६. पतंग

जब मेरी डोर किसी के हाथ में थी,
मैं छटपटाती थी, मुक्ति के लिए.

मैं दूर बादलों में उडूं,
हवाओं के साथ दौडूँ,
सूरज को ज़रा क़रीब से देखूं -
इतना मेरे लिए काफ़ी नहीं था.

मैं सोचती थी,जो मुझे उड़ाता है,
मुझे वापस क्यों खींच लेता है,
मेरा उड़ना, मेरा झूमना,
किसी और की मर्ज़ी से क्यों होता है.

डोर से कटकर तो मैं 
पूरी तरह हवाओं के वश में थी,
उड़-उड़ कर जब अधमरी हो गई,
तो किसी पेड़ की टहनी में फँस गई,
जहाँ मैं धीरे-धीरे फट रही हूँ,
तिल-तिलकर गल रही हूँ.

अगर टहनी में न फंसती,
तो भी मुक्त कहाँ होती,
मुझे दौड़ा-दौड़ाकर 
कोई-न-कोई आख़िर लूट ही लेता.

अब मैं समझ गई हूँ 
कि मेरे लिए मुक्ति संभव नहीं,
बस अलग-अलग स्थितियों में 
मेरे शोषण के तरीक़े अलग-अलग हैं. 

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015

१६५.शिव से

शिव, वह गंगा,
जो कभी तुम्हारी जटाओं से निकली थी,
अब मैली हो गई है,
बल्कि हमने कर दी है,
अब चाहकर भी हमसे 
साफ़ नहीं हो रही,
शायद हमारी इच्छा-शक्ति
या सामर्थ्य में कोई कमी है.

शिव, तुमसे विनती है,
तुम अपनी गंगा फिर से 
अपनी जटाओं में समेट लो.

जिस तरह तुमने कभी 
समुद्र-मंथन से निकला विष
अपने उदर में रखा था,
अब गंगा का मैल
अपनी जटाओं में रख लो 
और एक बार फिर हमें दे दो 
वही पहलेवाली निर्मल गंगा.

शनिवार, 11 अप्रैल 2015

१६४. आईना

मत बांधो मेरी तारीफ़ के पुल,
मत पढ़ो मेरी शान में कसीदे,
मत कहो कि मैं कुछ अलग हूँ,
कि मेरा कोई सानी नहीं है.

मैं जानता हूँ कि ये बातें अकसर
किसी मक़सद से कही जाती हैं,
अधिकार और पात्रता के बिना 
कुछ हासिल करने के लिए 
लोग ऐसा कहा करते हैं .

तुम्हें तो पता ही है 
कि तुम जो कह रहे हो, सही नहीं है,
फिर भी तुम कह रहे हो,
क्योंकि तुम्हें लगता है 
कि तुम्हारे झूठ को 
मैं आसानी से सच मान लूँगा.

पर मेरा यकीन मानो,
अपना सच मुझे मालूम है,
मैं आईना देखे बिना कभी 
घर से बाहर नहीं निकलता.


शनिवार, 4 अप्रैल 2015

१६३. कालिख

खूब रोशनी फैलाओ,
अँधेरा दूर भगाओ,
भटकों को राह दिखाओ,
इसी में छिपी है तुम्हारी ख़ुशी,
यही है तुम्हारे होने का मक़सद.

पर जब तुम्हारा तेल चुक जाय,
तुम्हारी बाती जल जाय,
तुम जलने के काबिल न रहो,
तो बची-खुची कालिख देखकर 
हैरान मत होना,
याद रखना कि 
ऐसा ही होता है सबके साथ,
तुम कोई अलग नहीं हो.

कोई भलाई की राह पर निकले 

तो गाँठ बांधकर निकले कि 
जो भी खुद को जलाकर 
रोशनी फैलाता है,
आखिर में उसके हिस्से में 
कालिख ही आती है.

शुक्रवार, 27 मार्च 2015

१६२. माँ

वह औरत जो गुम हो गई मेरी यादों से,
चौखट पर मेरी राह तकती होगी.

सुधर रही है मेरी तबीयत रफ़्ता-रफ़्ता,
उसकी नींद फिर भी उचटती होगी.

मेरी आवाज़ सुनने की ख्वाहिश में,
वह फ़ोन के इर्द-गिर्द टहलती होगी.

यह सोचकर कि मैं परेशां न हो जाऊं,
अपना दर्द वह दबाकर रखती होगी.

सुबह की गाड़ी से मेरा आना सुनकर,
वह रातभर करवटें बदलती होगी.

रास आ गई है मुझको परदेस की फ़िज़ां,
मेरी याद में वह गाँव में सिसकती होगी.

शुक्रवार, 20 मार्च 2015

१६१. बुझता दिया

मेरी बाती जल गई है,
तेल चुक गया है,
लौ मद्धिम हो गई है,
फिर भी मुझमें आग है.

मुझे कमज़ोर मत समझना,
जब तुम मुझे मरा समझ लोगे,
मैं ठीक उसी वक़्त भभकूंगा
और खुद मरने से पहले,
तुम्हें भी खाक कर दूंगा. 

शुक्रवार, 13 मार्च 2015

१६०.रास्ते


सीधे-सपाट रास्तों पर चलना 
मुझे अच्छा नहीं लगता,
ऊबड़-खाबड़, टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर 
चलने का मज़ा ही कुछ और है. 

ऐसे रास्तों पर चलकर लगता है 
कि चलना हो रहा है,
सपाट रास्तों पर तो लगता है 
कि रास्ता कहीं है और हम कहीं और.

ऐसे रास्तों पर चलकर लगता है 
कि हम चल ही नहीं रहे,
लगता है कि हम तो स्थिर हैं 
और रास्ता है, जो चल रहा है.

गुरुवार, 5 मार्च 2015

१५९. पुरानी होली

पिछले साल होली में 
तुमने जो रंग डाला था,
वह अभी तक नहीं छूटा,
बल्कि और गहरा गया है. 

तुम्हारी पिचकारी में क्या जादू था 
कि मैं आज तक भीगा हुआ हूँ,
तुम्हारे हाथों से बनी गुझिया की मिठास 
अब भी मेरे मुंह में कायम है. 

रंग-सने तुम्हारे हाथों की छुअन 
मेरे गालों पर अब भी ताज़ा है,
अब भी न जाने क्यों मेरे बदन में 
एक झुरझुरी-सी महसूस होती है. 

साल भर बीत गया,
तुम तो भूल भी गई होगी 
पिछले साल की होली,
पर मुझे वह हर पल याद है. 

मुझे इंतज़ार है 
कि तुम फिर से दोहरा दो 
पिछले साल की होली,
मुझे फिर से जीनी है इस बार 
वही पुरानी होली. 

रविवार, 1 मार्च 2015

१५८. अगर...

एक अरसे से ख्वामख्वाह जीता रहा हूँ मैं,
तुम जो कभी कहती, तो बेहिचक मर जाता।

वो जो कल ठिठुरकर मर गया सड़क पर,
आप ही कहिए, अगर जाता, तो कहाँ जाता ?

डर नहीं लगता मुझे तूफ़ानी हवाओं से,
मैं जो चाहता, तो किनारे पर ठहर जाता. 

ताउम्र उलझाए रखा दुनियादारी ने मुझे,
वक़्त मिला होता,तो मैं भी कुछ कर जाता।

नादान था, जो मारा गया बेकार की अकड़ में,
इल्म होता,तो वो भी ज़रा झुक जाता. 

वो शख्स जो डूब गया किनारे पर रहकर,
मझधार में आता, तो पार उतर जाता. 

शनिवार, 14 फ़रवरी 2015

१५७. गांठें

बिना वज़ह कभी-कभी लगती हैं गांठें,
बिना कोशिश कभी-कभी खुलती हैं गाँठें. 

तेरी भी हो सकती है, मेरी भी हो सकती है,
ग़लती चाहे जिसकी हो,चुभती हैं गाँठें. 

क्या कुछ नहीं है इस मुल्क में लेकिन,
रस्सी नहीं,पीछे खींचती हैं गाँठें. 

चंद रोज़ रोक दें तरक्क़ी के सब काम,
पहले मिल के खोल लें बरसों की गाँठें. 

सदियों पुरानी अभी खुली नहीं फिर भी,
लगाए चले जा रहे हैं नित नई गाँठें. 

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2015

१५६.पतंग


मेरी डोर उसके हाथों में है,
वह जब-जैसे चाहता है,
मुझे नचाता है.

कभी मुझे ढीला छोड़ देता है,
कभी अपनी और खींच लेता है,
कभी-कभी तो दूर से ही 
मुझे चक्कर खिला देता है,
जैसे महसूस कराना चाहता हो 
कि मैं उसके नियंत्रण में हूँ. 

मैं बरसात,गर्मी,सर्दी,
तेज़ हवाएं - सब कुछ 
अकेले बर्दाश्त करती हूँ,
वह कहीं आराम से बैठकर 
चाय की चुस्कियों के बीच 
मुझे उड़ाता रहता है. 

कभी-कभी जब मैं उससे दूर 
बादलों के बीच होती हूँ,
तो मुझे भ्रम हो जाता है 
कि मैं मुक्त हो गई हूँ,
पर वह तुरंत डोर खींच लेता है 
और कहीं कोने में पटक देता है 
ताकि अगले दिन मुझे फिर उड़ा सके. 
















शनिवार, 24 जनवरी 2015

१५५. कुत्ते



कुत्ते वही अच्छे लगते हैं,
जो दुम हिलाते हैं,
विदेशी नस्ल के कुत्ते दुम हिलाएं,
तो और भी अच्छे लगते हैं. 
ऐसे कुत्तों पर बहुत प्यार आता है,
उन्हें सहलाने का मन करता है,
उनके गले में रस्सी डालकर 
उन्हें टहलाने का मन करता है. 

जो कुत्ते भौंकते हैं,
उनसे डर लगता है 
कि कहीं काट न लें,
उनसे छुटकारा ही अच्छा है,
वे सड़कों पर ही ठीक होते हैं. 

दरअसल हम चाहते हैं 
कि कुत्ते देखने में तो कुत्तों की तरह हों,
पर उनका व्यवहार इंसानों जैसा हो. 

शुक्रवार, 16 जनवरी 2015

१५४. परिंदे


बेचैन इधर-उधर क्यों फिरता है परिंदे,
क्या तेरा भी छिन गया घर-बार परिंदे?

अब कहाँ वो पेड़,वो डाली,वो पत्ते,
जा किसी इमारत में बना घोंसला परिंदे।

सौ बार सोचा कर चहचहाने से पहले,
गणतंत्र है, पर बोलना मना है परिंदे।

चुगने की जल्दी न दिखाया कर इतनी,
बहेलियों के पास सारा दाना है परिंदे. 

ध्यान से देख,उनके हाथों में हैं पिंजरे,
तू उनके खेलने का सामान है परिंदे।

कौड़ियों में बिकती है जहाँ जान इंसानों की,
क्या सोच के आया उस बस्ती में परिंदे?

पंख है तो तमन्ना होगी आकाश को छूने की,
पर उन्हें नहीं पसंद किसी का उड़ना परिंदे. 

शुक्रवार, 9 जनवरी 2015

१५३. सिलेबस बदलने का समय

अब सिलेबस बदल दो.

वर्णमाला,पहाड़े ज़रूरी नहीं हैं,
बाद में भी सीखे जा सकते हैं,
पहले उन्हें वह सब सिखाओ,
जो सीखना ज़रूरी है.

उन्हें सिखाओ
कि कोई बम उछाले
तो कैसे लपका जाता है,
खिड़की से बाहर कैसे फेंका जाता है,
कोई गोलियां चलाए,
तो कहाँ छिपा जाता है,
गोली लग जाए,
तो कैसे चुप रहा जाता है,
मरने का अभिनय किया जाता है.

परीक्षा की तैयारी बाद में भी हो जाएगी,
अभी तो ज़रूरी है
कि वे स्कूल के लिए निकलें,
तो न लौटने के लिए तैयार रहें,
यदि बच जाएं,तो साथियों की 
चीखें सहने को तैयार रहें.

पढ़ने की आदत ज़रूरी नहीं,
उन्हें आदत होनी चाहिए
कि शरीर के चिथड़े देख सकें,
खून के फव्वारे देख सकें.

अब सिलेबस बदलने के दिन आ गए,
अब यह सीखने के दिन आ गए
कि कम उम्र में कैसे मरा जाता है.

शुक्रवार, 2 जनवरी 2015

१५२. कोहरे में गाँव


कोहरे में अपना गाँव 
मुझे बहुत अच्छा लगता है. 

न टूटी सड़कें दिखती हैं,
न सूखे नल, 
न सूने पनघट,
न वीरान खेत, 
न खाली खलिहान।

बरगद के नीचे का 
वह चबूतरा भी नहीं दिखता,
जहाँ कभी जमघट लगता था,
हुक्के गुड़गुड़ाए जाते थे.

न नंगे बच्चे दिखते हैं,
न नशे में धुत्त युवक,
न सहमी-सहमी सी लड़कियाँ,
न वो पेड़ जहाँ पिछले दिनों 
दो प्रेमी लटकाए गए थे. 

नहीं दिखती मुझे 
माँ की झुकी कमर,
पिता के चेहरे की झुर्रियाँ,
उनकी आँखों की उदासी,
उनका अकेलापन. 

कोहरा छँटते ही मैं 
शहर के लिए निकल पड़ता हूँ,
कोहरे में अपना गाँव 
मुझे बहुत अच्छा लगता है.