कभी-कभी ऐसा क्यों लगता है
कि बीज से निकलकर
डालियों,टहनियों, फूल-पत्तों के साथ
मैं जिस तरह से फैला,
उससे अलग तरह से फैलता
तो शायद अच्छा होता.
ज़रुरी तो नहीं था छितर जाना
फैलकर छायादार बन जाना,
अगर सीधे-सीधे ऊपर निकलता
तो शायद आसमान छू लेता,
कम-से-कम आस-पास के पेड़ों से
नीचा तो नहीं रहता.
अगर बीज थोड़ा बेहतर होता,
मिट्टी थोड़ी मुलायम होती,
सही खाद मिल जाती,
पानी थोड़ा और मिल जाता,
तो जहाँ पहुँचने में मुझे सालों लगे,
शायद महिनों में वहाँ पहुँच जाता.
अब इंतज़ार है
कि कोई लकडहारा आए,
मुझे पूरी तरह काट डाले,
या कोई तूफ़ान आए,
मुझे धराशायी कर जाए,
मैं फिर किसी बीज में समाऊँ,
एक बार फिर अपनी किस्मत आज़माऊँ.
कि बीज से निकलकर
डालियों,टहनियों, फूल-पत्तों के साथ
मैं जिस तरह से फैला,
उससे अलग तरह से फैलता
तो शायद अच्छा होता.
ज़रुरी तो नहीं था छितर जाना
फैलकर छायादार बन जाना,
अगर सीधे-सीधे ऊपर निकलता
तो शायद आसमान छू लेता,
कम-से-कम आस-पास के पेड़ों से
नीचा तो नहीं रहता.
अगर बीज थोड़ा बेहतर होता,
मिट्टी थोड़ी मुलायम होती,
सही खाद मिल जाती,
पानी थोड़ा और मिल जाता,
तो जहाँ पहुँचने में मुझे सालों लगे,
शायद महिनों में वहाँ पहुँच जाता.
अब इंतज़ार है
कि कोई लकडहारा आए,
मुझे पूरी तरह काट डाले,
या कोई तूफ़ान आए,
मुझे धराशायी कर जाए,
मैं फिर किसी बीज में समाऊँ,
एक बार फिर अपनी किस्मत आज़माऊँ.