जब कभी मैं कहीं से गुज़रता हूँ
और कोई आईना सामने आ जाता है,
तो खुद-ब-खुद मेरे कदम रुक जाते हैं.
एक पल को मैं ठहर जाता हूँ,
निहार लेता हूँ खुद को,
ठीक कर लेता हूँ बाल,
(जो पहले से ठीक होते हैं)
और फिर चल पड़ता हूँ आगे.
आईना न हो, कहीं ठहरा पानी हो,
जिसमें अपना अक्स देखा जा सके,
तो भी मेरे कदम रुक जाते हैं,
निहारना नहीं भूलता मैं खुद को.
अपने आप में मुझे ऐसा क्या दिखता है,
जिसे निहारने की चाह कभी नहीं मिटती?
और कोई आईना सामने आ जाता है,
तो खुद-ब-खुद मेरे कदम रुक जाते हैं.
एक पल को मैं ठहर जाता हूँ,
निहार लेता हूँ खुद को,
ठीक कर लेता हूँ बाल,
(जो पहले से ठीक होते हैं)
और फिर चल पड़ता हूँ आगे.
आईना न हो, कहीं ठहरा पानी हो,
जिसमें अपना अक्स देखा जा सके,
तो भी मेरे कदम रुक जाते हैं,
निहारना नहीं भूलता मैं खुद को.
अपने आप में मुझे ऐसा क्या दिखता है,
जिसे निहारने की चाह कभी नहीं मिटती?
आईना न हो, कहीं ठहरा पानी हो,
जवाब देंहटाएंजिसमें अपना अक्स देखा जा सके,
तो भी मेरे कदम रुक जाते हैं,
निहारना नहीं भूलता मैं खुद को.
बहुत खूब सुंदर प्रस्तुति के लिए बधाई ओंकार जी,,,,
RECENT POST ...: जिला अनुपपुर अपना,,,
सुन्दर प्रस्तुति। मरे पोस्ट पर आपका आमंत्रण है। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंसुन्दर अभिव्यक्ति........
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति...
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