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सोमवार, 30 दिसंबर 2013

१११. पुराना साल

कई दिनों से लगातार
सिसक रहा है पुराना साल,
सुन रहा है नए साल के 
आने की आहट.
सोच रहा है कि काश 
उसे समय मिल जाय,
अपनी छाप छोड़ दे वह,
गुज़रे सालों के अम्बार में 
कुछ अलग नज़र आए वह,
एक-एक कर वे सारे काम कर जाए, 
जो उसने तब सोचे थे 
जब वह पुराना नहीं,
नया साल था.

सुनो,पुराने साल,
यह तो तुम भी जानते हो 
कि बेफ़िक्री में बिताया तुमने पूरा जीवन,
कुछ नहीं कर पाए तुम,
क्योंकि करने का प्रयास ही नहीं किया,
अब रोने से क्या फ़ायदा?
तुम कुछ भी कर लो,
कितना भी गिड़गिड़ा लो,
जाना तो तुम्हें होगा ही,
पल भर की मोहलत भी 
नहीं मिलनेवाली तुम्हें,
ऐसा ही होता है,
यही नियम है,
यही सच है.

पुराने साल, उठो,
अब भी कुछ कर लो,
थोड़ा समय तुम्हारे पास 
अब भी शेष है,
कुछ नहीं करने से तो अच्छा है 
कि जाते-जाते कुछ कर जाओ.

शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

११०. ईसा और सलीब

दो हज़ार साल पहले 
वह कौन था जिसने 
उठाई थी सलीब,
वही सलीब जिस पर
उसे खुद चढ़ना था ?

वह कौन था ,
जिसका निकला था जुलूस,
जिसका उड़ा था मज़ाक,
जिसे मिला था दंड -
सच्चाई और अच्छाई का ?

तब से लगातार 
वही सलीब, वही ईसा,
दोहराई जा रही है 
वही पुरानी कहानी.

कितने हज़ार साल और लगेंगे
हालात बदलने में,
वह दिन कब आएगा,
जब सूली पर वही चढ़ेगा
जिसे उस पर चढ़ना चाहिए?
वह दिन कब आएगा 
जब हम इतना कह सकेंगे 
कि जो आदमी सूली पर चढ़ा है,
वह कम-से-कम ईसा नहीं है? 

शनिवार, 21 दिसंबर 2013

१०९. बीट

मैंने देखा,
सड़क पर कुछ गुंडे 
छेड़ रहे थे एक बच्ची को,
रो रही थी वह,
मदद मांग रही थी मुझसे,
पर मैं चुप था,
बहुत डरा हुआ था,
हँस रहे थे गुंडे,
बेबस थी वह बच्ची.

डाल पर बैठा एक कौवा
सब कुछ देख रहा था,
चिल्ला रहा था गला फाड़कर,
किए जा रहा था काँव-काँव,
पर बेबस था वह भी.

अंत में थक गया वह,
उसने मेरी ओर देखा,
बीट की मुझपर 
और फुर्र से उड़ गया.

शनिवार, 14 दिसंबर 2013

१०८. चाँद

तुम जो मुझे खूबसूरत समझते हो,
उसमें मेरा अपना कुछ भी नहीं है,
खूबसूरती तो तुम्हारी आँखों में है,
जो हर चीज़ को खूबसूरत बनाती है.

मेरा गोल होना तुम्हें अच्छा लगता है,
यह तुम्हारी अपनी पसंद है,
हो सकता है तुम्हें सिर्फ़ और सिर्फ़ 
चौकोर चीज़ें पसंद होतीं.

तुम्हें मेरी चाँदनी पसंद है,
पर हो सकता है 
तुम्हें अँधेरा पसंद होता,
तुम्हें शीतलता भाती है,
पर हो सकता है
तुम्हें तेज़ किरणें पसंद होतीं.

वैसे भी मेरा प्रकाश, 
जो तुम्हें शीतल लगता है,
अँधेरा दूर करता है,
मेरा अपना नहीं,
किसी और का है.

मैं जो पल-पल रूप बदलता हूँ,
उसमें मेरा कोई हाथ नहीं,
घटना-बढ़ना मेरी मज़बूरी है,
इसका कारण कोई और है.

मुझमें एक ही चीज़ मेरी है,
यह जो मेरे बदन पर
काले-काले बदसूरत धब्बे हैं,
ये बस मेरे अपने हैं.

शनिवार, 7 दिसंबर 2013

१०७. त्याग

आओ, बाँट ले आपस में 
घर का सारा सामान.

कर लें खेत के तीन टुकड़े-
पूरबवाला छोटे का,
बीचवाला मंझले का
और पश्चिमवाला मेरा.

बाँट लें घर के कमरे-
पीछेवाले मंझले के,
आंगनवाले छोटे के
और सामनेवाले मेरे.

सोना-चांदी,कांसा-पीतल,
भगोने-कड़ाही,चम्मच-कांटे,
लोहा-लक्कड़, कूड़ा-करकट,
सब कुछ बाँट लें तीन हिस्सों में.

अब बचे माँ और पिताजी,
कैसे बाँटें उन्हें तीन हिस्सों में?
चलो, माँ छोटे की,
पिताजी मंझले के,
लो, अबकी बार मैंने 
अपना हिस्सा छोड़ दिया.


मंगलवार, 3 दिसंबर 2013

१०६. मरम्मत

क्या तुम्हें पता है,
हमारे रिश्ते का पलस्तर 
थोड़ा-थोड़ा झड़ने लगा है,
दीवार की इक्का-दुक्का ईंट 
ज़रा-ज़रा हिलने लगी है,
फीकी पड़ने लगी है
रंगों की चमक,
एकाध टाइल कहीं-कहीं 
चटखने लगी है,
फ़र्श कहीं-कहीं धंसने लगा है,
ज़मीन कहीं-कहीं झलकने लगी है.

चलो, अब चेत जांय,
ज़रा-सा डर जांय,
टूट-फूट का आकलन कर लें,
कहीं देर न हो जाय.

इतना तो मैं जानता हूँ, 
तुम्हें भी तो पता है 
कि रिश्ते और इमारत की मरम्मत 
जितनी जल्दी हो जाय, 
उतना अच्छा है.

शनिवार, 23 नवंबर 2013

१०५. दीया

हवाओं,
मेरे बुझने पर मत इतराओ,
अभी मेरा अंत नहीं हुआ है.

अभी मुझमें थोड़ा तेल बाकी है,
अधजली बाती अभी शेष है,
मुझे इंतज़ार है बस एक लौ का
जो मुझे फिर से प्रज्जवलित करे.

मेरी बाती जलकर राख हो जाय 
तो भी मेरा अंत नहीं होगा,
तेल खत्म हो जाय, तो भी नहीं,
नई बाती, थोड़ा तेल और एक लौ,
बस, मैं फिर जल उठूँगा.

हवाओं,
विजय का जश्न मत मनाओ,
मैं बुझा हूँ, हारा नहीं हूँ,
मुझे हराने के लिए 
तुम्हें मुझे तोड़ना होगा.

यह सच है 
कि मैं मिट्टी से बना हूँ,
छोटा और कमज़ोर लगता हूँ,
पर मुझे तोड़ना आसान नहीं है,
मुझे तोड़ने के लिए तुम्हें
थोड़ा और ज़ोर लगाना होगा,
मुझे तोड़ने के लिए तुम्हें
थोड़ा और तेज़ बहना होगा.

गुरुवार, 14 नवंबर 2013

१०४. बू

एक समय था,
जब मेरी कल्पनाओं के पेड़ में 
खूब कविताएँ फला करती थीं,
मैं अच्छे-अच्छे फल चुनकर 
अपनी डायरी में सजा देता था,
सारे नुक्सवाले फल
डाल पर छोड़ देता था, 
पक्षियों के लिए 
या गिरकर सड़ने के लिए.

पर अब मेरी कविताओं का पेड़ 
पहले जैसा फलदार नहीं रहा, 
अब नुक्सवाले फल 
मैं डाल पर नहीं छोड़ सकता,
अब मैं उन्हें भी तोड़ता हूँ,
उन्हें भी डायरी में सजाता हूँ.

अब मेरी डायरी पहले की तरह 
महकती नहीं, उससे बू आती है,
अब मेरे पाठक कभी-कभी 
नाक बंद करके निकल जाते हैं.

अब मैं अकसर सोचता हूँ 
कि कविता लिखना छोड़ दूं.

शनिवार, 9 नवंबर 2013

१०३. प्यार

सुनो, मुझे तुमसे कुछ कहना है,
हँसना नहीं,
बस ध्यान से सुनना,
कभी भी, कहीं भी,
किसी कमज़ोर क्षण में भी 
यह मत कहना 
कि तुम्हें मुझसे प्यार है.

अच्छा है
कि तुम्हारे प्यार का एहसास
मुझे अपने आप हो.
कहीं ऐसा न हो 
कि तुम कह दो,
तुम्हें मुझसे प्यार है 
और मुझे कुछ महसूस ही न हो.

लोग जो कहते हैं,
ज़रुरी नहीं 
कि सच ही हो.
हो सकता है, 
उन्हें पता हो 
कि जो वे कह रहे हैं,
दिल रखने के लिए कह रहे हैं.
यह भी हो सकता है,
उन्हें लगता हो 
कि जो वे कह रहे हैं,
वह सच है,
पर वास्तव में वह सच न हो.

इसलिए कहता हूँ,
कभी बहुत दिल करे 
तो भी मत कहना
कि तुम्हें मुझसे प्यार है.
मेरे लिए इतना बहुत है 
कि बिना कुछ कहे-सुने
तुम मुझे महसूस करा दो 
कि तुम्हें मुझसे प्यार है.

शुक्रवार, 1 नवंबर 2013

१०२. दीपक


हटाओ मुझे यहाँ से,
कहीं और ले चलो.

यहाँ बहुत उजाला है,
हवाएं शांत हैं,
यहाँ मेरे जलने 
या न जलने से 
कोई फ़र्क नहीं पड़ता.

मुझे वहाँ ले चलो 
जहाँ खूब अँधेरा हो,
तेज़ हवाएं चलती हों,
जहाँ मेरी ज़रूरत हो,
जहाँ मुझे लगे 
कि मैं जल रहा हूँ.

कुछ दे सकते हो मुझे,
तो लड़ने का संबल दो,
नई बाती डालो मुझमें 
और ढेर सारा तेल.

अँधेरा हटाने दो मुझे,
हवाओं से लड़ने दो,
बुझते-बुझते जलने दो,
ले चलो मुझे यहाँ से,
मेरा जलना सार्थक करो.

शनिवार, 12 अक्तूबर 2013

१०१. लालच

लद्दाखी मार्मोट(एक तरह का चूहा)




बहुत सोच-समझकर बस्ती से दूर
यहाँ जंगल में महफूज़ जगह  पर
तुमने अपना ठिकाना बनाया,
पर अब यह जगह सुरक्षित नहीं रही,
अब हमने यहाँ तक सड़कें बना ली हैं,
हमने तुम्हें ढूंढ निकाला है,
अब तुम हमारे मनोरंजन का साधन हो.

हम तुम्हारे ठिकाने देखेंगे,
सड़े-गले बिस्किट फेंककर,
बचे-खुचे वेफर्स दिखाकर
तुम्हें ललचाएंगे,
बिल से बाहर निकालेंगे,
तुम्हारे साथ फोटो खिंचवाएंगे,
फिर तुम्हें अंदर जाने देंगे,
या शायद न जाने दें.

बिस्किट और वेफर्स का लालच छोड़ 
तुम बिल में ही क्यों नहीं रहते,
तुम भूख से नहीं मरोगे,
जंगली जानवरों से भी नहीं,
तुम अपने बिल में जीवित रहोगे,
अगर तुम अपने लालच से बच जाओ.

शनिवार, 5 अक्तूबर 2013

१००. मुज़फ्फरनगर से


मुज़फ्फरनगर, तुम्हें शायद याद न हो,
पर स्वाधीनता के आंदोलन में 
तुम्हारे पुरखे- हिंदू और मुसलमान-
साथ-साथ लड़े थे अंग्रेजों से.

विभाजन के समय 
जब देश जल रहा था,
तुम शांत बने रहे;
बाबरी मस्जिद टूटी,
पर तुम जुड़े रहे.

फिर इस बार क्या हुआ तुम्हें,
क्यों भूल गए अपना इतिहास,
क्यों भूल गए अपनी संस्कृति?
क्यों कर दिया तुमने
हिंदुओं के मुज़फ्फरनगर को 
मुसलमानों के मुज़फ्फरनगर से अलग?

क्या तुम्हारा पानी बदल गया 
या हवा बदल गई अचानक?
ऐसा क्या हो गया कि
वहशियत की हदें तोड़ दीं  तुमने?

बहुत गलत किया तुमने,
विरासत दागदार हो गई तुम्हारी,
बदनाम हो गए तुम,
मुज़फ्फरनगर, अब तुम चुपचाप 
अपना नाम बदल लो.

सोमवार, 30 सितंबर 2013

९९.आजकल

आजकल मुझे नींद नहीं आती,
मुझे जलते हुए मकान,
लुटता हुआ सामान,
भागते हुए पैर,
छुरे और तमंचे दिखते हैं.

मुझे खोई-खोई आँखें,
जुड़ी हुई हथेलियाँ,
दहशत भरे चेहरे,
गठरी-से बदन दिखते हैं,
मुझे कब्रें और चिताएं,
ताबूत और कफ़न दिखते हैं.

आजकल मेरे बंद कमरे में 
बेबस चीखें गूंजती हैं,
मेरे सपनों में आजकल 
ताज़ा खून टपकता हैं.

आजकल बहुत से शहरों में
बहुतों की नींद गायब है,
आजकल मुज़फ्फर्नगर
न खुद सोता है,
न दूसरों को सोने देता है.


शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

९८. घुसपैठ

क्या तुम बिनबुलाए 
कहीं भी पहुँच जाते हो?
बिना दरवाज़ा खटखटाए,
बिना इजाज़त लिए
कहीं भी घुस जाते हो?

फिर मेरे जीवन में 
कैसे घुस आए तुम
चुपचाप, बिना बताए?
कैसे जमा लिया आसन
तुमने मेरे मन में 
बिना मेरी अनुमति के?

अब तुम निकलने से इन्कार करते हो,
जैसे कि यही तुम्हारा घर हो,
अब मुझसे भी कहा नहीं जाता 
कि रहने दो मुझे अकेला,
छोड़ दो मुझे मेरे हाल पर,
किस हक़ से चले आए तुम?

अब असहज रहकर ही सही,
मुझे तुम्हारी आदत हो गई है,
अब मुझसे भी कहा नहीं जाता 
कि मेरे जीवन, मेरे मन से 
घुसपैठिए, तुम निकल जाओ.

शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

९७. गृहिणी और सिलवटें


दिन भर की थकान के बाद 
जब गृहिणी बिस्तर पर पहुँचती है,
उसे नींद नहीं आती.
आज का अपमान,झिड़कियाँ,
कल की चिंताएं,परेशानियाँ,
उसे सोने नहीं देते.

सुबह उठकर गृहिणी देखती है
अपने हिस्से का बिस्तर 
और उसपर पड़ी सिलवटें.

ये वे सिलवटें नहीं हैं,
जिन्हें देखकर शर्म आती है,
ये वे सिलवटें नहीं हैं,
जिन्हें देखकर लोग 
मन-ही-मन मुस्कराते हैं,
ये बेचैनी की सिलवटें हैं.

हर सुबह गृहिणी 
सिलवटें ठीक करती है,
हर सुबह गृहिणी 
करवटें बदलने का दंड भोगती है,
गृहिणी की हर सुबह एक-सी होती है,
उसकी किसी सुबह में 
कोई नया सूरज नहीं उगता. 

शुक्रवार, 6 सितंबर 2013

९६. मौसम से

कभी गर्मी, कभी बारिश, कभी उमस,
मौसम, अपनी झोली में गहरे हाथ डालो,
कुछ अच्छा-सा हो, तो निकालो.

बहुत खेल ली आँख-मिचौली तुमने,
बहुत कर चुके मनमानी,
अब तो ज़रा रहम खा लो.

वे पुराने सुहाने दिन -
महीनों तक चलनेवाले,
न ज्यादा ठण्ड,न गर्मीवाले,
न बदबूदार पसीनेवाले,
न काँटों-से चुभनेवाले -
एक बार फिर से बुला लो.

दो झोलियाँ हों तुम्हारे पास,
तो फ़ेंक दो यह झोली,
दूसरी झटपट उठा लो.

मौन क्यों हो तुम, मौसम,
कब तक करते रहोगे तंग,
सब कुछ तो दिखा दिया तुमने,
सब को नचा दिया तुमने,
कोई कसर नहीं छोड़ी तुमने,
अब तो पलटी खा लो.

शनिवार, 31 अगस्त 2013

९५. गायब हुए गाँधी

कुछ साल पहले तक 
सड़कों पर गाँधी मिल जाया करते थे.
उनसे मिलकर अच्छा लगता था,
लगता था, सरलता और त्याग जिंदा हैं
और जिंदा है, भरोसेमंद नेतृत्व,
पर अब स्थितियां बदल गई हैं,
अब सड़कों पर केवल नाथूराम दिखते हैं,
उनके हाथों में बंदूकें 
और आँखों में हैवानियत होती है,
उनके शब्द ताज़ा घावों पर 
नमक-जैसा असर करते हैं.
उन्हें मालूम है, पर नहीं बताते 
कि सारे गाँधी कहाँ चले गए.
मुश्किल है, उनका लौटकर आना,
अब उनके बिना ही जीना होगा.
जो गाँधी गायब हुए हैं, बहुत अहिंसक हैं,
आत्मरक्षा में भी हथियार नहीं उठाते.

शनिवार, 24 अगस्त 2013

९४.रास्ते

मत करो रास्तों को समतल,
इन्हें ऊबड़-खाबड़ ही रहने दो.

सीधे-सपाट रास्तों पर चलकर 
चलने का मज़ा नहीं आता,
रास्ते टेढ़े-मेढ़े, ऊंचे-नीचे हों,
कहीं गड्ढे,कहीं कंकड़,कहीं कांटे हों,
तो लगता है, चल रहे हैं.

सीधे-सपाट रास्तों पर चलकर 
सुस्ती महसूस होती है,
छायादार पेड़ के नीचे बैठकर 
पलकें झपकाने का मन होता है,
चलना मुश्किल हो जाता है.

अच्छा तो यही है कि
ऊबड़-खाबड़ रास्ते भी न हों,
मंजिल तक भले न पंहुचें,
रास्ता बनाने की कला तो सीखें.

मंजिल तक पंहुचने के लिए,
वहाँ तक राह बनाने के लिए
या फिर चलने की खुशी के लिए 
ज़रुरी है कि रास्ते ऊबड़-खाबड़ हों 
या फिर बिल्कुल न हों.

गुरुवार, 15 अगस्त 2013

९३. कविता- अधूरी या पूरी ?

कभी-कभी मन करता है,
वह वर्षों पुरानी कविता पूरी कर दूं.

जब तुम्हारी एक झलक पहली बार देखी थी,
फिर महीनों तक चोरी-छिपे देखता रहा था,
जब कई दिनों के इंतज़ार के बाद 
पहली बार तुम्हें हँसते देखा था
और यह भी कि जब तुम हँसती थी 
तो तुम्हारे गालों में डिम्पल पड़ जाते थे,
जब पहली बार तुम्हारी आवाज़ सुनी थी,
तुमसे ज़रा-सी बात करने के लिए 
न जाने कैसे-कैसे बहाने ढूंढे थे,
कितनी हिम्मत जुटाई थी
कितनी रिहर्सल की थी,
जब पहली बार तुम्हारी आँखों के रंग में 
मैंने हल्का-सा हरापन महसूस किया था,
जब पहली बार मैंने डरते-डरते
तुमसे मन की बात कही थी 
और तुमने तुरंत जवाब दिया था,
"नहीं"....

बहुत बार कागज़-कलम लेकर बैठा,
पर आगे कुछ लिख ही नहीं पाया,
लगता है,आज भी कुछ वैसा ही होगा,
पर आज कविता कुछ अलग-सी लग रही है.

जो कविता मैंने कभी मन से लिखी थी,
आज वही बहुत बचकानी लगती है,
जो सालों तक अधूरी महसूस होती रही,
आज लगता है, वह तो शुरू से ही पूरी थी.

गुरुवार, 8 अगस्त 2013

९२. पैंगोंग से

(पैंगोंग- लेह से लगभग १५० किलोमीटर दूर स्थित खूबसूरत झील. करीब १३८ किलोमीटर लंबी इस झील का ४०% भारत में और शेष चीन में है.)


पैंगोंग, तुम्हारा पानी इतना स्थिर क्यों है?
इतना सहमा-सा, इतना उदास क्यों है?
क्या इसका मन नहीं करता 
कि कभी चीन की ओर दौड़ जाय
और वहाँ के पानी से गले मिल ले,
ज़रा वहाँ के नज़ारे भी देख ले.

पासपोर्ट-वीज़ा नहीं तो क्या
चोरी-छिपे ही चला जाय,
सतह के नीचे-नीचे,
सैनिकों की निगाहों से बचते-बचाते.

और तुम, चिड़िया,
पैंगोंग पर जब उड़ान भरो,
तो ध्यान रखना 
कि सीमा-पार न चली जाओ,
किसी सैनिक की गोली का शिकार न बन जाओ.

सच है कि यह विशाल झील एक है,
पर चिड़िया, धोखा मत खाना,
यह थोड़ी भारत और थोड़ी चीन में है.
उड़ान भरते समय याद रखना 
कि भारत की चिड़ियों का चीन जाना 
और चीन की चिड़ियों का भारत आना 
सख्त मना है.

बुधवार, 31 जुलाई 2013

९१.बचपन

कितना अच्छा होता है बचपन,
न कोई चिंता,न कोई फ़िक्र,
न कोई बोध अपमान का,
जो घर बना ले मन में,
न कोई घृणा का भाव,
जो खाता रहे खुद को ही,
न कोई गुस्सा, 
जो उबलता रहे मन-ही-मन,
फिर फट पड़े कभी अचानक.

काश कि बचपन कभी खत्म न होता, 
या बचपन में लौटना संभव होता,
या कम-से-कम इतना हो जाता 
कि आदमी पहले बड़ा होता,
फिर बूढ़ा
और अंत में बच्चा.

शनिवार, 20 जुलाई 2013

९०. गृहिणी और भाजी

गृहिणी के बटुए में रखे हैं 
कुछ फटे-पुराने नोट और चिल्लर,
बाज़ार आई है गृहिणी 
भाजी खरीदनी है उसे.

पूरा बाज़ार घूमेगी गृहिणी,
दाम पूछेगी हर भाजीवाले से,
मिन्नतें करेगी,मोलभाव करेगी,
ज़रूरत हुई तो तकरार करेगी,झगड़ेगी.

मज़बूर है गृहिणी,
सबकी सेहत का ख्याल है उसे,
हरी-ताज़ी सब्जियां खरीदनी हैं उसे,
पर थोड़े पैसे भी बचाने हैं 
ताकि शाम को उसका आदमी पी सके 
ठर्रे की एक बोतल.

शनिवार, 13 जुलाई 2013

८९.मेले में कविता

मेले में बहुत कुछ होता है,
तरह-तरह के नज़ारे - 
चूड़ियाँ,सलवार-दुपट्टे,
सुन्दर-सुन्दर खिलौने,
झूलों पर झूलते लोग,
जलेबियां और समोसे,
हँसते-खिलखिलाते चेहरे,
मायूस, उदास चेहरे,
ठग, चोर-उचक्के,
मासूम-से बच्चे.

कविताएँ उगाने के लिए 
मेले की मिट्टी माफ़िक होती है,
पर मेले की भीड़ में 
कविताएँ गुम भी हो जाती हैं.

मैं हर साल मेले में जाता हूँ,
क्योंकि पिछले साल खोई हुई कविताएँ 
कभी-कभी अगले साल के मेले में मिल जाती हैं.

रविवार, 7 जुलाई 2013

८८. नफ़रत और प्यार

चलो, तुमसे कह ही देता हूँ 
कि मैं तुमसे नफ़रत करता हूँ,
जैसे कभी साफ़-साफ़ कहा था 
कि मैं तुमसे प्यार करता हूँ,
पर तुम परेशान मत होना,
सिर्फ़ कह देने से कुछ नहीं होता,
हो सकता है, कल मुझे लगे,
मैं फिर से तुम्हें कह दूं 
कि मैं तुमसे प्यार करता हूँ.

दरअसल हम अकसर वही कहते हैं 
जो हमारे मन में होता है
और जो मन में होता है,
हमेशा एक-सा कहाँ होता है?

कभी-कभी तो ऐसा भी होता है 
कि ज़बान जो कहती है 
या उसे जो कहना पड़ता है,
वह उससे बहुत अलग होता है
जो हमारे मन में होता है.

हो सकता है, जब मैंने तुमसे कहा था 
कि मैं तुमसे प्यार करता हूँ,
तो मेरे मन में तुम्हारे लिए नफ़रत हो
और आज जब मैं कह रहा हूँ 
कि मैं तुमसे नफ़रत करता हूँ,
तो मेरे मन में तुम्हारे लिए 
बेपनाह प्यार भरा हो. 

शनिवार, 29 जून 2013

८७. दिल और ज़बान

बहुत अजीब लगता है,
जब कोई कहता है 
कि वह ज़बान का कड़वा,
पर दिल का बहुत साफ़ है.

क्या महत्व है इसका 
कि कोई दिल का कैसा है?
क्या मतलब हो सकता है किसी को 
किसी अजनबी के दिल से?
यह कड़वी ज़बान ही तो है,
जो सीधे दिल पर चोट करती है.

अच्छा तो यही है 
कि ज़बान मीठी हो,
जो तुरंत असर करे,
फ़ौरन खुशी पंहुचाए,
अंदर से कोई बुरा हो तो हो.

दिल का कोई कैसा भी हो,
जो न दिखता है,
न महसूस होता है,
वह कैसा भी हो,
क्या फ़र्क पड़ता है?





शनिवार, 22 जून 2013

८६. बारिश के बाद

कई दिनों की बारिश के बाद 
आज सुबह से धूप खिली है,
कलूटे बादल जा छुपे हैं कहीं,
आसमान ने थोड़ी सांस ली है.

पत्तियां सुखा रहीं हैं भीगे बदन,
पंखुड़ियों के चेहरों पर चमक छाई है,
पंछी निकल पड़े हैं घोंसलों से,
चूज़ों को भूख लग आई है.

खुल गए हैं हाट-बाज़ार, रास्ते,
बोझिल क़दमों में फिर जान आई है,
थोड़े दिन चुप रहना बारिश,
बड़ी मुश्किल से ज़िंदगी मुस्कराई है.

रविवार, 16 जून 2013

८५. झाड़ू और गृहिणी

बहुत सफाई-पसंद है गृहिणी,
रोज बुहारती है कूड़ा,
रोज लगाती है पोंछा,
छोड़ती नहीं घर का कोई कोना 
जहाँ छिप सके ज़रा-सी भी गन्दगी.

चम-चम करता है गृहिणी का घर,
न कोई दाग, न कोई धब्बा,
पर जो उसके जीवन में बिखरा है,
वह कूड़ा कम ही नहीं होता,
बढ़ता ही चला जाता है.

ढूंढ नहीं पाई गृहिणी कोई झाड़ू,
जो हटा दे इस कूड़े को,
या थोड़ा कम ही कर दे,
कम-से-कम बढ़ने न दे.

झाड़ू लगाती गृहिणी सोचती है,
क्यों न वह एक तिनका निकाले 
और उसकी आँखों में चुभो दे,
जिसने उसके जीवन में कूड़ा बिखेरा है,
पर गृहिणी रुक जाती है,
क्योंकि वह परमेश्वर है 
और परमेश्वर के बारे में 
ऐसा सोचना भी पाप है.

शनिवार, 8 जून 2013

८४. फल

उसे फल खाना पसंद है,
पर वही जिन्हें खाना आसान हो,
जिनके लिए न चम्मच चाहिए,न छूरी,
न ही जिनको खाने में हाथ गंदे होते हों.

उसे केले जैसे फल पसंद हैं
या फिर सेब,अंगूर जैसे,
संतरे,पपीते जैसे नहीं,
क्योंकि वह नफ़ासत-पसंद है.

जो फल वह खाना चाहता है,
उससे कोई प्रतिरोध उसे मंज़ूर नहीं,
वह कोई ज़द्दोज़हद नहीं चाहता,
वह बस पूरा समर्पण चाहता है.

रविवार, 2 जून 2013

८३. बेड़ियाँ

बेटी, अब तुम्हें घर में ही रहना है,
कभी-कभार निकल जाना बाहर,
ले लेना ठंडी हवा में सांस,
देख लेना पेड़ों,फूलों,परिंदों को,
सूरज,चाँद,सितारों को,
सागर,नदियों,पहाड़ों को,
मिल लेना चुनिन्दा सहेलियों से,
फिर लौट आना इसी कमरे में.

बेटी, मैं भी चाहता हूँ 
कि तुम आसमान में उड़ो,
दकियानूसी बिल्कुल नहीं हूँ मैं,
पर बाहर न जाने कौन ताक में हो,
हैं भी इतने कि पहचानना मुश्किल है.

बेटी, यह लड़की होने का दंड तो है,
पर कसूरवार मैं नहीं हूँ,
मैंने तुम्हें बेड़ियाँ पहनाई हैं,
क्योंकि मुझे प्यार है तुमसे,
न मैं तुम्हें खो सकता हूँ,
न मैं देख सकता हूँ तुम्हें
अंतहीन वेदना में.

बेटी, शहर में बहुत खतरे हैं,
जंगल होता तो छोड़ देता तुम्हें,
वहाँ शायद तुम महफूज़ रहती,
जहाँ सिर्फ भेड़िए घूमते हैं.

शनिवार, 25 मई 2013

८२. बीज और चट्टान



एक छोटा सा बीज था मैं,
अब पौधा बन गया हूँ .

बस थोड़ी सी मिट्टी मिली थी चट्टान पर,
उसी में प्रस्फुटित हुआ
और वहीँ जमा लीं अपनी जड़ें .

यह तो बस शुरुआत है,
धीरे-धीरे वह दिन भी आएगा,
जब मेरी जड़ें इतनी मजबूत होंगीं
कि यह चट्टान फट जाएगी .

कभी मैं और चट्टान
दोनों कठोर थे,
मैंने छोड़ दी अपनी कठोरता,
आने दिया कोमलता को बाहर,
पर चट्टान चूर रही मद में,
छोड़ नहीं पाई कठोरता,
खोज नहीं पाई कोमलता
अपनी सख्त सतह के नीचे .

जब मेरी जड़ें तोड़ेंगी चट्टान को,
तो यह बीज की चट्टान पर नहीं
कोमलता की कठोरता पर विजय होगी .

शुक्रवार, 17 मई 2013

८१. बूँद-बूँद


अभी-अभी शुरू हुआ है नल,
बूँद-बूँद आ रहा है पानी,
धीरज रखो, प्यास ज़रूर बुझेगी,
नहा सकेगा पूरा परिवार,
दाल-चावल पकेंगे, आटा गुन्धेगा,
सफाई हो सकेगी आँगन की,
भरी होंगी बाल्टियाँ गुसलखाने में.

बूँद-बूँद आ रहा है पानी,
परेशान क्यों हो, आने दो,
क्या सुना नहीं तुमने 
कि बूँद-बूँद से घड़ा भरता है?
तुम्हारा भी भर जाएगा,
बस यह मत पूछना कि 
इस तरह घड़ा भरने में 
समय कितना लगता है.

शुक्रवार, 10 मई 2013

८०. मौन

बहुत साल हुए बोझ ढोते,
चलो, अब इसे उतार फेंकें.

भूल जाएँ वह कहासुनी,वे बातें,

जिन पर वक्त की पर्त जमी है,
जो मुश्किल से याद आती हैं,
बड़ी कोशिशों से ताज़ा रह पाती हैं.

तोड़  दें हमारे बीच का मौन,

गिरा दें वह दीवार
जिसका नींव से संपर्क टूट रहा है.

न तुम्हें माफ करने की ज़रूरत है मुझे,

न मुझे माफ करने की ज़रूरत है तुम्हें,
न कोई तर्क चाहिए, न विश्लेषण
कि गलती तुम्हारी थी या मेरी.

कुछ मैं तुमसे कहूँ,कुछ तुम मुझसे,

फिर से डालें आदत संवाद की,
पुराने दिनों में लौटने के लिए 
मौन की आदत बदलना ज़रुरी है.

शनिवार, 4 मई 2013

७९. शब्द

आजकल बार-बार करना पड़ता है 
कुछ शब्दों का प्रयोग,
सोचना नहीं पड़ता उन्हें,
याद हो गए हैं वे,
स्थिति बनते ही 
खुद-ब-खुद चले आते हैं.

अपने-आप बैठ जाते हैं 
हर किसी की ज़ुबान पर,
बिना किसी प्रयास के 
कागज़ पर उतर आते हैं.

आजकल बार-बार प्रयोग में आते हैं 
हत्या, बलात्कार,लूट,
अपमान,बेईमान जैसे शब्द,
दूसरों को मौका ही नहीं देते.

आजकल भूलने लगा हूँ मैं 
बहुत सारे शब्द 
जो बचपन में सीखे थे,
आजकल मैं शब्दकोष 
साथ लेकर चलता हूँ.

शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013

७८. सवाल

                   (दिल्ली में ५ साल की बच्ची से बलात्कार की घटना के सन्दर्भ में)

माँ, बड़े अच्छे लगे थे अंकल
जब उन्होंने मुझे टॉफी दी,
बिल्कुल पापा जैसे,
पर जैसे ही कमरा बंद हुआ,
वे तो बिल्कुल बदल गए.

बहुत ज़बरदस्ती की उन्होंने,
मेरे अंदर वे चीज़ें रखीं,
जो तुम आले में रखती हो,
क्या उन्हें चोरी का डर था,माँ?

न जाने क्या-क्या किया उन्होंने,
मुझे मारा-पीटा,मेरा गला दबाया,
बहुत रोई मैं,
पर उनपर असर ही नहीं हुआ,
बहुत याद किया मैंने,
पर तुम आई ही नहीं,
कहाँ रह गई थी तुम, माँ?

कुछ समझ नहीं आया मुझे,
क्या खोज रहे थे वे
और क्यों खोज रहे थे,
क्या चाहते थे वे 
और क्यों चाहते थे,
माँ, मुझे इतना तो बता दो
कि आखिर मेरे साथ हुआ क्या था?

शनिवार, 20 अप्रैल 2013

७७. दीवार

कब तक चलेगा दोषारोपण,
खुद को सही ठहराने का प्रयास
और एक दूसरे से आस 
कि माफ़ी मांगे गलती के लिए.

उम्र निकल गई इसी तरह,
वरना न तुम चाहते थे दूरी 
न मैं चाहता था मुंह मोड़ना,
दोनों ने चाहा था साथ चलना.

वह दीवार बड़ी कच्ची थी,
जो दोनों के बीच खड़ी थी,
पर हमने ज़ोर ही नहीं लगाया,
खुद-ब-खुद वह गिरती कैसे,
सारी ज़िंदगी उसे सहारा जो दिया.

अब मैं ज़रा जल्दी में हूँ,
मर गया तो तुम्हें कहाँ खोजूंगा,
चलो कह देता हूँ कि गलती मेरी थी 
और यह भी कि तुमने मुझे माफ किया.

शनिवार, 13 अप्रैल 2013

७६. रंग

बड़ी धूमधाम से मनी इस बार होली,
खूब मचा हुड़दंग,
खूब बरसे रंग,
लाल, पीले, नीले,
हरे, गुलाबी, बैगनी,
बड़े पक्के, गहरे रंग,
पर थोड़ा सा साबुन, थोड़ा सा पानी,
छूट गए सब-के-सब चंद दिनों में.

बस एक रंग किसी ने ऐसा डाला, 
जिस पर न साबुन का असर है, न पानी का,
जो दिखता भी नहीं,
जो छूटता भी नहीं,
जो अच्छा भी लगता है,
जो परेशान भी करता है,
जो चैन भी देता है,
जो बेचैन भी करता है.

मैंने तय कर लिया है 
कि अगले साल होली नहीं खेलूंगा. 

शनिवार, 6 अप्रैल 2013

७५. वसंत में पतझड़


पतझड़ ने छीन लिए पेड़ों से पत्ते,
परिंदों से बसेरे, पथिकों से छाया,
मायूसी बिखेर दी बगिया में.

दिनों-दिन गुज़र गए,
बुझने लगी उम्मीद
कि अचानक वसंत आया,
कोंपलें फूटीं,
कोमल हरी पत्तियों ने ढक लिया पेड़ों को,
फूल मुस्करा उठे डालियों पर,
पेड़ों की छाया में पथिकों ने
फिर विश्राम किया,
फिर छाईं खुशियाँ,
फिर जगा विश्वास,
फिर खिलीं उम्मीदें.

कुछ पेड़ फिर भी उदास रहे,
उलझे रहे अतीत में,
आकलन करते रहे नुकसान का,
जो पतझड़ में उन्हें हुआ था.

वसंत आया,
पर वे बेखबर रहे,
उन पेड़ों पर न पत्तियां आईं, न फूल,
उनको न पथिकों ने पूछा, न परिंदों ने,
वे ठूंठ के ठूंठ बने रहे,
वसंत में भी पतझड़ झेलते रहे.

शुक्रवार, 29 मार्च 2013

७४. चिड़िया से


चिड़िया, जब तुम आसमान में उड़ती हो,
तुम्हारे मन में क्या चल रहा होता है?

तुम मस्ती में उड़ी चली जाती हो,
या कि सोचती हो, कहीं बादलों में फंस न जाओ,
कि सूरज के ताप से झुलस न जाओ,
कि कहीं तुम्हारे पंख जवाब न दे दें?

तुम्हें उन चूज़ों की चिंता तो नहीं सताती,
जो घोंसले में तुम्हारा इंतज़ार कर रहे होते हैं,
कि उनके लिए दानों का इंतज़ाम होगा या नहीं,
कि कहीं तूफ़ान में घोंसला गिर तो नहीं जाएगा?

उड़ते समय तुम्हारे मन में डर तो नहीं होता
कि लौटने पर तुम्हारे बच्चे सलामत मिलेंगे या नहीं,
कि तुम खुद किसी बहेलिए के निशाने पर तो नहीं,
जो तुम्हारी ताक में कहीं छिपा बैठा हो?

उड़ते समय तुम्हारे मन में क्या चल रहा होता है,
चिड़िया, मौत से पहले भी क्या तुम मरती हो?

शनिवार, 23 मार्च 2013

७३. कविता की दस्तक

वह जो कविता कल दिखी थी,
अचानक गायब हो गई.

बहुत सुन्दर, बहुत अच्छी थी,
पर मेरा ध्यान ज़रा क्या भटका
कि वह रूठकर चली गई,
फिर मिली ही नहीं.

न जाने कहाँ चली गई,
बहुत परेशान रहा मैं,
बहुत खोजा मैंने,
पर नतीजा शून्य,
अब तो उसके मिलने की
उम्मीद भी नहीं रही.

सोचता हूँ, अब कभी कोई कविता आई,
तो सब कुछ छोड़कर साथ हो लूँगा,
खोने का दंश और नहीं सहूंगा,
बहुत कुछ खोया है मैंने,
तब जाकर सीखा है
कि कभी कोई कविता दस्तक दे,
तो दरवाज़ा तुरंत खोल देना चाहिए.

शनिवार, 16 मार्च 2013

७२.प्रत्युत्तर






बदनाम मत करो मुझे,
जानो,समझो,मुझे पहचानो.

मैं हर साल आता हूँ 
ताकि पुराने दकियानूसी पत्ते 
छोड़ दें अपनी हठधर्मिता,
समझ लें कि उनका काम पूरा हुआ 
और राह दें नए कोमल पत्तों को 
जिनके कन्धों पर सवार होकर 
एक नए दौर को आना है.

मुझे विध्वंसक मत कहो,
ध्यान से देखो मुझे,
दरअसल सर्जक हूँ मैं,
विध्वंस में ही छिपा है सृजन,
जब तक अंत नहीं होता 
शुरुआत भी नहीं होती.

मैं ही तैयार करता हूँ ज़मीन,
मैं ही डालता हूँ बुनियाद 
आनेवाले सुनहरे कल की,
ज़रा सोचो कि मैं नहीं होता 
तो वसंत कैसे आता?

शनिवार, 9 मार्च 2013

७१.पतझड़

पतझड़, बड़े बेशर्म हो तुम.

हर साल चले आते हो मुंह उठाए,
पत्तों को पेड़ों से गिराने,
कलियों-फूलों को मिटाने,
परिंदों से उनके घोंसले छीनने,
बगिया को तहस-नहस करने.

पतझड़, तुम्हें क्यों नहीं सुहाती 
पत्तों की हरितिमा,
कलियों का सौंदर्य,
फूलों की खुशबू ?
चहचहाते परिंदों से 
क्या दुश्मनी है तुम्हारी?
क्या मिलता है तुम्हें 
पेड़ों को ठूंठ बनाकर?
हँसता-खिलखिलाता जीवन 
तुम्हें क्यों रास नहीं आता?

हर बार वसंत आता है,
खदेड़ भगाता है तुम्हें,
फिर निकल आते हैं हरे-हरे पत्ते,
फिर खिल जाती हैं कलियाँ,
फिर मुस्करा उठते हैं फूल,
फिर चहचहाने लगते हैं परिंदे.

पर तुम बाज़ नहीं आते,
घात लगाए बैठे रहते हो,
मौका मिलते ही फिर से 
बोल देते हो हमला.

पतझड़, इतने बेशर्म 
इतने निष्ठुर मत बनो,
कभी तो उस उत्सव का हिस्सा बनो,
जिसका विध्वंस करने 
तुम हर साल चले आते हो.

शनिवार, 2 मार्च 2013

७०.अनलिखा-अनकहा

जो लिख दिया गया,जो कह दिया गया,
वह लेखों में,स्मृतियों में है.

फिर भी बहुत कुछ है,जो अनलिखा है,
बहुत कुछ है,जो अनकहा है.
अनलिखे को तलाश है लिखनेवाले की 
और अनकहे को कहनेवाले की.

कभी न कभी अनलिखे को लिखनेवाला, 
अनकहे को कहनेवाला मिल ही जायेगा.
जो अनलिखा है,लिख दिया जाएगा,
जो अनकहा है,कह दिया जाएगा.

जब सब कुछ लिख दिया जाएगा,
तब भी कुछ नया होगा,जो अनलिखा होगा,
जब सब कुछ कह दिया जाएगा,
तब भी कुछ नया होगा, जो अनकहा होगा.
ऐसा कभी नहीं होगा 
कि कुछ भी अनलिखा न रहे,
कुछ भी अनकहा न रहे.

अनलिखे को लिखनेवाले,
लिखनेवालों को अनलिखा,
अनकहे को कहनेवाले,
कहनेवालों को अनकहा,
कभी निराश नहीं करते.

शनिवार, 23 फ़रवरी 2013

६९.आदर्श

मुझे नहीं बनना तुम्हारा आदर्श.

मैं बस मैं बना रहना चाहता हूँ,
वह नहीं जो तुम सोचते हो कि मैं हूँ,
मेरी कमजोरियां सामने आने दो,
थोड़ा-सा मोहभंग हो जाने दो,
मैं चाहता हूँ थोड़ा बेशर्म बनना,
थोड़ी बेहूदा हरकतें करना,
थोड़ा झूठ बोलना, लड़ना- झगड़ना,
नाराज़ होना, बदला लेना,
पीठ पीछे थोड़ी बुराई करना.

तोड़ डालो वह छवि,
जो मेरी तुम्हारे मन में है,
मुझे देखो,समझो,जानो,
मैं भी औरों की तरह 
एक ओछा-सा इंसान हूँ 
और इसी में खुश हूँ.

मुझे मत बनाओ भगवान,
मत करो अपेक्षाओं में क़ैद,
मुझे ज़रा सांस लेने दो,
मुझे ज़रा जीने दो,
मुझे नहीं बनना तुम्हारा आदर्श,
मुझे नहीं बनना किसी का भी आदर्श.

शनिवार, 16 फ़रवरी 2013

६८.मैं

मेरे घर की दहलीज़,
कितनी बार कहा तुझसे 
कि जब मैं बाहर से आऊं 
तो जूतों के साथ 
उतरवा लिया करो 
मुझसे मेरा मैं भी.

बहुत ढीठ है यह मैं,
हमेशा लगा रहता है साथ,
दफ्तर में, बाज़ार में,
बस में, रास्ते में,
हर जगह...
कम से कम घर में तो छोड़ दे 
मुझे मेरे हाल पर, 
पड़ा रहे जूतों के साथ
दहलीज़ के बाहर,
पर नहीं, यह बेशर्म
घुस आता है मुंह उठाए 
मेरे साथ मेरे घर में.

इस मैं के साथ
मैं मैं नहीं रहता,
घर चाहे जो भी हो 
घर नहीं रहता.

रविवार, 10 फ़रवरी 2013

६७.कविता की खोज

कल एक कविता ख्यालों में आई,
मैं पकड़ पाता हाथ बढ़ाकर
इससे पहले गायब हो गई.

बहुत परेशान हूँ मैं,
कैसे रपट लिखाऊं,
कैसे इश्तेहार छपवाऊँ,
गुमशुदा अपनी कविता को 
कैसे लौटाकर लाऊँ?

कोई शक्ल-सूरत हो
तो उसे खोजा भी जाए,
जो कागज़ पर उतरने से पहले ही 
गायब हो गई हो,
उस कविता को कैसे ढूँढा जाए?


शुक्रवार, 25 जनवरी 2013

६६.पतंग

मैं, रंग-बिरंगी, चमकीली,
उड़ती रही हवा में अनवरत,
जाती रही बादलों के पार,
झूमती रही मस्ती में,
झुक-झुक कर देखती रही 
नीचे पड़ी बेबस-सी ज़मीन 
और उसकी पिद्दी-सी चीज़ों को.

बड़ा भा रहा था मचलना, मटकना,
किसी भी रोक-टोक का न होना,
लगता था जैसे यही मेरा घर है,
जैसे यही मेरी ज़िंदगी है.

न जाने अचानक क्या हुआ,
नियंत्रण खो बैठी मैं खुद पर,
धड़ाम से आ गिरी ज़मीन पर,
जहाँ मुझे लपकने के लिए 
लोग बल्लियाँ लिए खड़े थे.

काश, समय रहते मैं जान जाती
कि मेरी डोर किसी और के हाथ में है,
कि आसमान की मेरी उड़ान मेरी नहीं,
कि जो ज़मीन छोटी-सी दिखती है ,
अंततः मुझे वहीँ लौटना है. 

शुक्रवार, 18 जनवरी 2013

६५. अकेला

तुम कभी अकेले नहीं हो,
अगर अपने साथ तुम खुद हो.

सभी तुम्हारा साथ छोड़ जांय,
तो भी डरने की कोई बात नहीं,
न ही मुंह छिपाने की कोई बात है,
न ही इसमें कहीं कोई हार है.

अगर ऐसा हो जाय कि सभी 
एक-एक कर तुमसे अलग हो जांय,
तो अपने से थोड़ा दूर जाना,
देखना कि क्या तुम अपने साथ हो.

अगर हाँ, तो फिर तुम अकेले नहीं,
अगर ना,तो खुद को ऐसा बदलना
कि तुम खुद अपने साथ हो जाओ,
देखना, वे लोग भी साथ आ जाएँगे,
जो एक-एक कर तुमसे  दूर हुए थे.

अगर कोई साथ न आए 
तो भी कोई परवाह नहीं,
अगर तुम अपने साथ हो,
तो फिर तुम अकेले कहाँ हो?

शुक्रवार, 11 जनवरी 2013

६४.दहलीज़

मुझे पसंद नहीं दहलीज़,
जो तय कर देती है 
मेरे घर की सीमा,
जता देती है कि अपना क्या है 
और पराया क्या है,
बता देती है इस ओर का फ़र्क
उस ओर से.

क्यों न हटा दें ये संकेत,
जो पैदा करते हैं दुविधाएं,
रोकते हैं किसी को बाहर जाने 
और किसी को अंदर आने से.

सभी अगर इंसान हैं 
तो अपना-पराया कैसा,
घर-बाहर कैसा,
ये सीमाएं कैसी 
और ये दह्लीज़ें किसलिए?

शनिवार, 5 जनवरी 2013

६३. मैं क्या हूँ?

मैं क्या हूँ ?
आकाश में भटकता बादल,
जो गरजे न बरसे,
जिसे उड़ाती रहें हवाएं,
इधर से उधर...

नहीं,मैं वो नहीं हूँ,
बादल तो देता हैं छांव,
मैं क्या देता हूँ?

क्या मैं पानी का बुलबुला हूँ?
नहीं, वह भी लगता है सुन्दर
धीरे-धीरे सतह पर तैरते.

क्या मैं हवा का गुब्बारा हूँ?
नहीं, गुब्बारे से खेलकर
खुश होते हैं बच्चे,
भाता है उसका इधर-उधर उड़ना.

न मैं बादल हूँ,
न बुलबुला,न गुब्बारा,
मैं ऐसा कुछ हूँ,
जिसका अस्तित्व तो है,
पर क्यों है,पता नहीं.