बुधवार, 31 जुलाई 2013

९१.बचपन

कितना अच्छा होता है बचपन,
न कोई चिंता,न कोई फ़िक्र,
न कोई बोध अपमान का,
जो घर बना ले मन में,
न कोई घृणा का भाव,
जो खाता रहे खुद को ही,
न कोई गुस्सा, 
जो उबलता रहे मन-ही-मन,
फिर फट पड़े कभी अचानक.

काश कि बचपन कभी खत्म न होता, 
या बचपन में लौटना संभव होता,
या कम-से-कम इतना हो जाता 
कि आदमी पहले बड़ा होता,
फिर बूढ़ा
और अंत में बच्चा.

शनिवार, 20 जुलाई 2013

९०. गृहिणी और भाजी

गृहिणी के बटुए में रखे हैं 
कुछ फटे-पुराने नोट और चिल्लर,
बाज़ार आई है गृहिणी 
भाजी खरीदनी है उसे.

पूरा बाज़ार घूमेगी गृहिणी,
दाम पूछेगी हर भाजीवाले से,
मिन्नतें करेगी,मोलभाव करेगी,
ज़रूरत हुई तो तकरार करेगी,झगड़ेगी.

मज़बूर है गृहिणी,
सबकी सेहत का ख्याल है उसे,
हरी-ताज़ी सब्जियां खरीदनी हैं उसे,
पर थोड़े पैसे भी बचाने हैं 
ताकि शाम को उसका आदमी पी सके 
ठर्रे की एक बोतल.

शनिवार, 13 जुलाई 2013

८९.मेले में कविता

मेले में बहुत कुछ होता है,
तरह-तरह के नज़ारे - 
चूड़ियाँ,सलवार-दुपट्टे,
सुन्दर-सुन्दर खिलौने,
झूलों पर झूलते लोग,
जलेबियां और समोसे,
हँसते-खिलखिलाते चेहरे,
मायूस, उदास चेहरे,
ठग, चोर-उचक्के,
मासूम-से बच्चे.

कविताएँ उगाने के लिए 
मेले की मिट्टी माफ़िक होती है,
पर मेले की भीड़ में 
कविताएँ गुम भी हो जाती हैं.

मैं हर साल मेले में जाता हूँ,
क्योंकि पिछले साल खोई हुई कविताएँ 
कभी-कभी अगले साल के मेले में मिल जाती हैं.

रविवार, 7 जुलाई 2013

८८. नफ़रत और प्यार

चलो, तुमसे कह ही देता हूँ 
कि मैं तुमसे नफ़रत करता हूँ,
जैसे कभी साफ़-साफ़ कहा था 
कि मैं तुमसे प्यार करता हूँ,
पर तुम परेशान मत होना,
सिर्फ़ कह देने से कुछ नहीं होता,
हो सकता है, कल मुझे लगे,
मैं फिर से तुम्हें कह दूं 
कि मैं तुमसे प्यार करता हूँ.

दरअसल हम अकसर वही कहते हैं 
जो हमारे मन में होता है
और जो मन में होता है,
हमेशा एक-सा कहाँ होता है?

कभी-कभी तो ऐसा भी होता है 
कि ज़बान जो कहती है 
या उसे जो कहना पड़ता है,
वह उससे बहुत अलग होता है
जो हमारे मन में होता है.

हो सकता है, जब मैंने तुमसे कहा था 
कि मैं तुमसे प्यार करता हूँ,
तो मेरे मन में तुम्हारे लिए नफ़रत हो
और आज जब मैं कह रहा हूँ 
कि मैं तुमसे नफ़रत करता हूँ,
तो मेरे मन में तुम्हारे लिए 
बेपनाह प्यार भरा हो.