शुक्रवार, 28 दिसंबर 2018

३३९. सवाल


देख लो आज मुझे चोटी पर,
तारीफ़ कर लो मेरी,
मुस्कराहट है मेरे होठों पर,
लेकिन एक कसक है दिल में -
मरना पड़ा है मुझे बार-बार,
तब पहुँच पाया हूँ इस बुलंदी पर.

आज शिखर पर हूँ मैं,
पर दिल में सवाल है 
कि मर-मर कर ऊपर पहुंचने से 
जीते हुए नीचे रहना 
क्या ज़्यादा अच्छा नहीं है?

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018

३३८.भँवर


मैंने खुला छोड़ रखा है 
अपने घर का दरवाज़ा,
इस उम्मीद में 
कि शायद भूला-भटका 
कोई दोस्त आ जाय 
या कोई अति उत्साही 
दुश्मन ही घुस आय.

दोस्त या दुश्मन न सही,
कोई चोर ही सही,
मेरे नीरस एकाकी जीवन में 
कुछ तो चहल-पहल हो,
इस ठहरे सरोवर में 
कोई लहर न सही,
कोई भँवर ही उठे. 

शनिवार, 15 दिसंबर 2018

३३७. हँसो

बंद खिड़की की झिर्री से 
झाँक रही है तुम्हारी 
सहमी-सहमी सी हँसी। 

तुम्हारी हँसी, हँसी कम 
रुलाई ज़्यादा लगती है,
इससे तो बेहतर था,
तुम थोड़ा रो ही लेती। 

हँसना ही है,
तो खोल दो खिड़की,
खोल दो किवाड़,
तोड़ दो ताले,
लाँघ लो देहरी,
फिर पूरे मन से 
बिना डर, बिना झिझक,
दिन-दहाड़े,
खुल कर हँसो। 

हँसना ही है, तो ऐसे हँसो 
कि वे भी निकल आएं दबड़ों से,
जो लंबे अरसे से 
हँसना भूल गए हैं। 



शुक्रवार, 7 दिसंबर 2018

३३६.पौधे


अनुशासित से पौधे 
कितने ख़ुश लग रहे हैं 
और कितने सुन्दर !
बहुत मेहनत की है 
माली ने इन पर,
कतरी हैं इनकी 
पत्तियां-टहनियां,
तब जाकर मिला है इन्हें 
इतना सुन्दर रूप.

कोई पौधों से पूछे 
कि क्या सचमुच ख़ुश हैं वे,
कैसा लगता है 
जब बाँध दिया जाता है उन्हें 
एक सीमित दायरे में,
जहाँ से उन्हें 
पत्ता-भर झाँकने की भी 
अनुमति नहीं है.