बारिश,
क्यों आई हो यहाँ,
चली जाओ.
कहाँ थी तुम,
जब निर्दयी सूरज
जला रहा था हमें,
जब फट रही थी ज़मीन
प्यास के मारे,
सूख रही थीं
नदियाँ,बावड़ियाँ,
ख़ाली हो रहे थे
तालाब,कुएँ ?
तब तो तांडव कर रही थी तुम
बिहार,आसाम में,
पानी फेर रही थी
लुटे-पिटे लोगों की
बची-खुची उम्मीदों पर.
बारिश,
सब कुछ डुबो कर भी
जी नहीं भरा तुम्हारा?
नरभक्षी कैसे हो गई तुम,
कैसी भूख है तुम्हारी?
क्या पानी से प्यास नहीं बुझी
कि खून भी पीने लगी तुम?
बारिश,
क्यों आई हो यहाँ,
चली जाओ,
तुम्हारे मचाए हाहाकार के बीच
अब ये टिप-टिप,टापुर-टुपुर
मुझे अच्छी नहीं लगती.
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (28 -07-2019) को "वाह रे पागलपन " (चर्चा अंक- 3410) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
....
अनीता सैनी
हृदयस्पर्शी सृजन ।
जवाब देंहटाएंबारिश के ताण्डव से क्षुब्ध मन की सार्थक प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंव्यवस्था पर कटाक्ष करती सुंदर रचना...
जवाब देंहटाएंसुंदर कविता। मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
जवाब देंहटाएंiwillrocknow.com
वाह बहुत सुंदर कविता
जवाब देंहटाएंउम्दा लिखावट ऐसी लाइने बहुत कम पढने के लिए मिलती है धन्यवाद् Aadharseloan (आप सभी के लिए बेहतरीन आर्टिकल संग्रह जिसकी मदद से ले सकते है आप घर बैठे लोन) Aadharseloan
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