शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2011

८.वेदना 

खेल-खेल में राहगीर
तोड़ लेते हैं टहनियां,
मसल डालते हैं पत्ते,
बच्चे फेंक जाते हैं मुझपर 
पत्थर यूँ ही...

आवारा पक्षी जब चाहें
बैठ जाते हैं शाखों पर 
या बना लेते हैं उनमें घोंसले 
बिना पूछे...

बारिशें भिगो जाती हैं,
झिंझोड़ जाती हैं कभी भी,
हवाएं कभी हौले 
तो कभी जोर से 
लगा जाती हैं चपत 
ठिठोली में...

पतझड़ को नहीं सुहाती 
मेरी हरियाली, मेरी मस्ती,
कर जाता है मुझे नंगा बेवजह 
जाते-जाते...

आखिर मेरा कसूर क्या है?
क्या बस यही 
कि मैं सब कुछ
चुपचाप सहता हूँ?

शनिवार, 22 अक्तूबर 2011

७.इस बार की बीमारी 

इस बार बीमारी आई और गई.

सब कुछ तो था पहले जैसा,
डॉक्टर,स्टेथोस्कोप, इंजेक्शन,
दवाइयां,परहेज़,आराम.

हाल पूछने आये पड़ोसी,
चाय-नाश्ता करके गए,
दफ्तर से फ़ोन आया 
कि चिंता मत करना काम की ज़रा भी.

इस बार बस तुम नहीं आई,
तुम्हारी आँखों में वेदना,
तुम्हारे चेहरे पर चिंता की लकीरें ,
बहुत मिस कीं मैंने इस बार.

मिस किया तुम्हारा यह कहना कि
"जल्दी ठीक हो जाओगे तुम"
और असमंजस भरा तुम्हारा 
आधा-अधूरा  सा स्पर्श.

इस बार बीमारी आई और गई,
इस बार पहले-सा मज़ा नहीं आया.  

मंगलवार, 18 अक्तूबर 2011

६. आखिरी बूँद

पेडों को भिगोती रहीं
बारिश की ठंडी फुहारें
पत्तों के बदन छूकर
सर्र से निकलती रहीं बूंदें
रात की अठखेलियों के बाद
सुबह का सूरज निकला
एक आखिरी बूँद चिपकी रही
पत्ते की नर्म मुलायम छाती से ।
सूरज ने हवा को बुलाया
तब कहीं बूँद को
पत्ते के आलिंगन से छुड़ाया.
 
 
( मेरे अंग्रेजी ब्लॉग में पहले ही प्रकाशित )

शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2011

५. पात्रता

मत दो कुपात्र को कुछ भी,
धन-संपत्ति,घर-बार,
यहाँ तक कि अपना प्यार,
पर दे दो उसे थोड़ी विद्या,
थोडा ज्ञान, थोड़ी रौशनी.

हो सकता है, उसमे आ जाये पात्रता
और फिर दे सको तुम उसको
अपना सर्वस्व.