१९. इंसान
मेरे गम में वह रोया,
मेरी खुशी में मुस्कराया,
जब लगी चोट
तो मरहम लगाया.
गिरने से बचाया उसने
जब-जब मैं लडखडाया,
मैं कभी गिरा तो
उसने बढ़कर उठाया.
घर से निकला तो
फूल बिछाए उसने,
चुन-चुन कर हटाये उसने
कांटे और कंकर.
वह मेरा कोई न था,
न मेरे घर का,
न पड़ोस का,
न ही कोई दोस्त,
दूर का रिश्तेदार भी नहीं.
मैंने पूछा, 'इतना सब किसलिए?'
उसने कहा,'क्योंकि मैं भी इन्सान हूँ.'
अभी भी इंसानियत बची हुई है ... अच्छी रचना
जवाब देंहटाएंबहुत खुबसूरत रचना अभिवयक्ति.........
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर भाव.
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया सर!
जवाब देंहटाएंसादर
बहुत खूब! आज इसी इंसानियत की ही तो ज़रूरत है...
जवाब देंहटाएंवाह! काश.. सभी को सोच इतनी रचनात्मक हो जाय।
जवाब देंहटाएंsach insan hi insan ke kaam aata hai..nate rishtedaar to ham banate hain...
जवाब देंहटाएंbahut sundar chintanbodh karati rachna..
उसने कहा क्योंकि मैं भी इन्सान हूँ
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति