९.अकेला दिया
दिवाली की रात एक एक कर बुझ गए
वे सारे दिए जो मैंने शाम को जलाये थे,
एक अकेला दिया जलता रहा भोर तक,
बिना बाती, बिना तेल,
हांफते-कांपते, अपनी जीवन डोर थामे,
उचक-उचक कर देखता रहा,
आसमान में पूरब की ओर
कि सूरज निकला या नहीं.
ज़िद है उसकी कि नहीं बुझेगा,
लड़ेगा अँधेरे से अंतिम साँस तक,
देखेगा सूरज को आसमान में उगते,
अँधेरे को दुम दबाकर भागते
और फिर बंद करेगा अपनी आँखें.
ज़िद है उसकी कि नहीं बुझेगा,
जवाब देंहटाएंलड़ेगा अँधेरे से अंतिम साँस तक,
देखेगा सूरज को आसमान में उगते,
अँधेरे को दुम दबाकर भागते
और फिर बंद करेगा अपनी आँखें.
दीये का यह बहुत ही अच्छा संकल्प है।
सादर
बहुत खूबसूरत रचना अपनी मन की बात को खूबसूरती से परिभाषित करती रचना |
जवाब देंहटाएंसकारात्मक सोच लिए अच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंज़िद है उसकी कि नहीं बुझेगा,
जवाब देंहटाएंलड़ेगा अँधेरे से अंतिम साँस तक,
देखेगा सूरज को आसमान में उगते,
अँधेरे को दुम दबाकर भागते
और फिर बंद करेगा अपनी आँखें. diye ka yah hausla anukarniy hai
ओंकार जी,सप्रेम नमस्कार,
जवाब देंहटाएंवो सारे दिये जो मैंने शाम को जलाये थे
एक अकेला दिया जलता भोर तक,
सुंदर भाव से लिखी अच्छी पोस्ट ...बधाई...
मेंरी नयी पोस्ट "माँ की यादे" में स्वागत है..
ज़िद है उसकी कि नहीं बुझेगा,
जवाब देंहटाएंलड़ेगा अँधेरे से अंतिम साँस तक,
ऐसी पावन जिद को नमन!
बहुत अच्छी रचना...बधाई स्वीकारें
जवाब देंहटाएंनीरज
इस जागरण की आपको बहुत बहुत बधाई ....
जवाब देंहटाएंदुआ है आप यूँ ही सूरज देखते रहे ....