थक चुका हूँ मैं
सीधे-सरल रास्तों पर चलते-चलते.
शुक्रगुज़ार हूँ मैं उनका,
जिन्होंने क़दमों तले फूल बिछाए,
पर अब इन फूलों से तलवे जलने लगे हैं,
पेड़ों की घनी छांव में
अब दम घुटता है,
सीधी सपाट सड़क
अब उबाऊ लगती है।
क्या फ़ायदा इस तरह चलने का
कि पसीना भी न निकले,
इतनी भी थकान न हो कि
सुस्ताने का मन करे?
घर से ज्यादा आराम सफ़र में हो,
तो क्या फ़ायदा बाहर निकलने का,
बैठने से ज्यादा आराम चलने में हो,
तो क्या फ़ायदा ऐसे चलने का?
मुझे दिखा दो उबड़-खाबड़ राह ,
जिसमें कांटे बिछे हों,
जहाँ दूर-दूर तक कहीं
पेड़ों कि छांव न हो,
जिस पर चल कर लगे कि चला हूँ,
फिर मंजिल चाहे मिले न मिले।
बहुत सार्थक सोच....बहुत सुन्दर प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंमुझे दिखा दो उबड़-खाबड़ राह ,
जवाब देंहटाएंजिसमें कांटे बिछे हों,
जहाँ दूर-दूर तक कहीं
पेड़ों कि छांव न हो,
जिस पर चल कर लगे कि चला हूँ,
फिर मंजिल चाहे मिले न मिले।
बहुत सुंदर सार्थक अभिव्यक्ति की रचना,..अच्छी प्रस्तुति
MY RECENT POST,,,,फुहार....: बदनसीबी,.....
शुक्रगुज़ार हूँ मैं उनका,
जवाब देंहटाएंजिन्होंने क़दमों तले फूल बिछाए,
पर अब इन फूलों से तलवे जलने लगे हैं,
पेड़ों की घनी छांव में
अब दम घुटता है,
सीधी सपाट सड़क
अब उबाऊ लगती है।.... इस उबन में एक थकान है और अव्यक्त दर्द
आज कल तो हर राह ऊबड़ खाबड़ ही है ...
जवाब देंहटाएंचुनौतियां ज़रूरी हैं जीवन में......
जवाब देंहटाएंअच्छी रचना..
सादर
भावमय करते शब्दों का संगम है यह अभिव्यक्ति ।
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