पिंजरे में रहते-रहते
अब चाह नहीं रही
कि आज़ाद हो जाऊं,
खुले आसमान में उड़ूँ,
देखूं कि मेरे पंखों में
जान बची भी है या नहीं।
अब हर वक़्त मुझे
घेरे रहती है चिंता
कि हवा जो पिंजरे में आ रही है,
कहीं रुक न जाए,
दाना जो रोज़ मिल रहा है,
कहीं बंद न हो जाए,
मिलता रहे मुझे अनवरत
बस चोंचभर पानी।
अब छोटा हो गया है
मेरी ख़्वाहिशों का दायरा,
न जाने अब मैं क्या हूँ,
पर पंछी तो बिल्कुल नहीं हूँ.
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 24/11/2018 की बुलेटिन, " सब से तेज़ - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब आदरणीय
जवाब देंहटाएंमनोबल कब तक।
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना।
'नोन-तेल-लकड़ी' की फ़िक्र हममें से बहुतों की उड़ान रोक देती है, पंख क़तर देती है.
जवाब देंहटाएंपराधीनता की व्यथा पर हृदयस्पर्शी सृजन ।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब। ऐसे ही हम भी हैं। बस पैसे आते रहें इसीलिए सहते रहते हैं।
जवाब देंहटाएंदर्द या जीने की मजबूरी ...
जवाब देंहटाएंपंची शायद बस माध्यम है शब्दों का ...
Very nice post...
जवाब देंहटाएंWelcome to my blog for new post.