आदरणीय ओंकार जी, नमस्ते 🙏! कहीं से कोई पत्थर उठाओ, खींचकर मारो मेरी ओर, हलचल मचा दो मुझमें, चोट लगे तो लग जाय , पर महसूस तो हो मुझे कि मैं अभी ज़िन्दा हूँ. जिंदा महसूस कराने के लिए पत्थर से चोट करना जरूरी है। कभी -कभी सचमुच जरूरी हो जाता है। --ब्रजेन्द्रनाथ
बहुत सटीक रचना बहुत ख़ूब ।आदरणीय शुभकामनाएँ
जवाब देंहटाएंवाह, बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंचिकोटी से भी काम चल सकता है जहां पत्थर किसलिये? :)
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 20 अक्टूबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंवाह , झकझोरने वाली चेतना ही चाहिए सभी को
जवाब देंहटाएंचिंतन परक भावाभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंसुंदर अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंमहसूस तो हो मुझे
जवाब देंहटाएंकि मैं अभी ज़िन्दा हूँ.
वाह!
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंआदरणीय ओंकार जी, नमस्ते 🙏!
जवाब देंहटाएंकहीं से कोई पत्थर उठाओ,
खींचकर मारो मेरी ओर,
हलचल मचा दो मुझमें,
चोट लगे तो लग जाय ,
पर महसूस तो हो मुझे
कि मैं अभी ज़िन्दा हूँ.
जिंदा महसूस कराने के लिए पत्थर से चोट करना जरूरी है। कभी -कभी सचमुच जरूरी हो जाता है। --ब्रजेन्द्रनाथ
संक्षिप्त और सुंदर रचना गागर में सागर सुंदरम मनोहरम
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