सुनो,
मुझे वे दिन याद आते हैं,
जब सड़कों पर मिलने के
ढेर सारे मौक़े हुआ करते थे,
पर हम कतराकर निकल जाते थे.
तब किसी को गले लगाना
कोई डर की बात नहीं थी,
हम फिर भी बचते रहते थे,
पर अब सालता है दर्द
इन मौक़ों के खो जाने का.
कभी तो कोरोना हारेगा,
कभी तो वे मौक़े फिर आएँगे,
पर क्या हम ख़ुद को बदल पाएंगे?
क्या हम किसी को गले लगा पाएंगे?
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 04 अक्टूबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंकभी तो कोरोना हारेगा,
जवाब देंहटाएंकभी तो वे मौक़े फिर आएँगे,
उन अवसरों की उम्मीद में एक एक दिन बीतता है । बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति ।
बहुत बढ़िया सर!
जवाब देंहटाएंअब पछताए क्या होत
जवाब देंहटाएंयह सुबह जरूर आएगी
जवाब देंहटाएंआशा ही जीवन है।
जवाब देंहटाएंजो आया है उसे तो जाना ही पड़ेगा।
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (6-10-2020 ) को "उन बुज़ुर्गों को कभी दिल से ख़फा मत करना. "(चर्चा अंक - 3846) पर भी होगी,आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा
सच है, वक़्त के साथ चलना ज़रूरी है। बाद में मौक़ा मिले न मिले। बहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंआदरणीय ओंकार जी, नमस्ते👏! आपने चुके हुए मौकों को कोरोना से जोड़कर बहुत अच्छी कल्पनायें बुनी हैं। पंक्तियाँ:
जवाब देंहटाएंतब किसी को गले लगाना
कोई डर की बात नहीं थी,
हम फिर भी बचते रहते थे,
पर अब सालता है दर्द
इन मौक़ों के खो जाने का।
सुंदर रचना! साधुवाद!--ब्रजेन्द्रनाथ