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बुधवार, 30 दिसंबर 2020

५२०. साल परिवर्तन



यह सच है 

कि 2020 ने बहुत परेशान किया,

पर उसका साथ तो रहा ही है,

जिसके साथ रहे हों,

उसका जाना बुरा तो लगता ही है,

वह कितना ही बुरा क्यों न हो.

**

पुराने को जाना ही है,

नए को आना ही है,

हो सकता है, जो जा रहा हो,

बहुत अच्छा हो,

हो सकता है, जो आ रहा हो,

बहुत बुरा हो,

पर हमारे वश में क्या है?

न हम जानेवाले को रोक सकते हैं,

न आनेवाले को,

हम बस दर्शक हैं,

दर्शक के सिवा कुछ भी नहीं.

**

नया साल आया भी नहीं 

कि तुम जश्न मनाने लगे,

लगता है, तुम्हें यक़ीन है 

कि यह साल भी तकलीफ़ देगा 

बीते साल की तरह.


सोमवार, 28 दिसंबर 2020

५१९. सोचा-समझा प्यार



तुमने तो कह दिया 

कि तुम्हें मुझसे प्यार है,

पर मुझे अभी तय करना है.


कई विकल्प हैं मेरे पास,

कहाँ नफ़ा ज़्यादा है,

कहाँ नुकसान कम है,

मुझे आकलन करना है.


जब हिसाब हो जाएगा,

पड़ताल पूरी हो जाएगी,

तभी बता सकूंगा तुम्हें 

कि मुझे तुमसे प्यार है या नहीं.


लैला-मजनूँ,शीरीं-फरहाद,

हीर-रांझा, रोमियो-जूलियट,

कहानियों की बातें है,

अब न अँधा प्यार है,

न पहली दृष्टि का प्यार.


बदले समय में ज़रूरी है 

कि हम सोच-समझकर 

नफ़ा-नुकसान देखकर 

प्यार करना सीख लें.

शनिवार, 26 दिसंबर 2020

५१८.हँसना ज़रूरी है


हँसो कि हँसना ज़रूरी है.


बाहर नहीं, तो अन्दर ही सही,

खुले में नहीं,तो बंद कमरे में सही,

कहीं भी सही,पर हँसना ज़रूरी है.


दिन में नहीं,तो रात में सही,

सुबह को नहीं,तो शाम को सही,

कभी भी सही,पर हँसना ज़रूरी है.


ज़ोर से नहीं, तो धीरे से सही,

धीरे से नहीं,तो बेआवाज़ ही सही,

कैसे भी सही,पर हँसना ज़रूरी है.


अभी अवसर है, जी भर के हँस लो,

कम-से-कम अकेले में, बेआवाज़ हंसने पर

अभी कोई पाबंदी नहीं है.

गुरुवार, 24 दिसंबर 2020

५१७. वह स्त्री




बचपन में पिता ने कहा,

'चुप रहो',

जवानी में पति ने कहा,

'चुप रहो',

बुढ़ापे में बेटे ने कहा,

'चुप रहो',

हर किसी ने कहा,

'चुप रहो',

उसके बोलने का समय 

कभी आया ही नहीं.


एक दिन वह मर गई,

किसी ने नहीं पूछा उससे, 

'तुम्हारी अंतिम इच्छा क्या है?'

कोई पूछ भी लेता,

तो वह क्या जवाब देती,

उसे तो बोलना आता ही नहीं था. 


मंगलवार, 22 दिसंबर 2020

५१६.विधवा से



ओ विधवा,

तुमने मेहँदी लगाना,

नाखून रंगना,

माँग सवारना,

बिंदी लगाना,

रंगीन कपड़े पहनना,

सजना, सवरना -

सब छोड़ दिया, 

ठीक नहीं किया,

पर तुमने बहुत ग़लत किया 

कि हँसना छोड़ दिया.

शनिवार, 19 दिसंबर 2020

५१५. सूर्यास्त


बस थोड़ी देर में 

शाम होने को है,

उतर रहा है झील में 

लहूलुहान सूरज,

बेसब्री से देख रहे हैं 

किनारे पर खड़े लोग.


मैं सोचता हूँ,

किसी को डूबते हुए देखना 

इतना अच्छा क्यों लगता है.

बुधवार, 16 दिसंबर 2020

५१४. मछुआरे से


मछुआरे,

तुम मझधार में गए थे,

तुम्हें तो लौट आना था,

पर तुम उस पार चले गए.

अब नहीं लौटोगे तुम इस पार,

अगर मुझे तुमसे मिलना है,

तो मुझे भी जाना होगा उस पार 

और अगर मैं गया,

तो मैं भी नहीं लौटूंगा कभी इस पार.

**

मछुआरे,

तुम मछली पकड़ने गए थे 

गहरे समुद्र में,

हर बार तो तुम लौट आते थे,

इस बार कौन से मोती मिले 

कि तुम लौटे ही नहीं?

**

मछुआरे,

इस बार मैं भी चलूँगा तुम्हारे साथ,

दूर समुद्र में जाएंगे,

ख़ूब मछलियाँ पकड़ेंगे,

पर मुझे तैरना नहीं आता,

तुम्हें बचाना आता है न?

शनिवार, 12 दिसंबर 2020

५१३. गाँव वापसी


अब वे रास्ते नहीं रहे,

जिन पर मैं चलता था,

पक्की सड़कें हैं,

जिन पर बैलगाड़ियाँ नहीं,

मोटरगाड़ियाँ दौड़ती हैं,

पैडल वाले रिक्शे नहीं,

अब बैटरी-रिक्शे चलते हैं,

पक्के मकान उग आए हैं

खुले मैदानों में,

गुम हैं वे ग़रीब से होटल 

जिनमें चाय-समोसे बनते थे,

काठ और टीन के देवालय की जगह 

अब भव्य मंदिर खड़ा है,

अंग्रेज़ी बोलते बच्चे अब 

सर्र से निकल जाते हैं बगल से,

हाँ,अब भी वहीं है वह स्कूल,

जिसमें मैं पढ़ता था,

पर मुझे पहचानता नहीं,

जाता हूँ, तो पूछता है,

वह कौन सा साल था,

जब तुम यहाँ पढ़ते थे?

बुधवार, 9 दिसंबर 2020

५१२. मास्क



वैसे तो हम सब 

हमेशा लगाते थे,

इन दिनों तो बस 

दिखा रहे हैं.

**

जो सामने था,

वही तो मुखौटा था,

अब जो चढ़ा है,

मुखौटे पर मास्क नहीं,

तो और क्या है?

**

आँखों पर क्यों चढ़ा रखा है?

मुँह और नाक ही काफ़ी था,

मास्क का बहाना बनाकर 

कम-से-कम नज़रें तो मत चुराओ.

रविवार, 6 दिसंबर 2020

५११. 2020



बहुत तड़पाया तुमने,

बहुत रुलाया,

मजबूर किया 

घर में क़ैद रहने को,

मास्क लगवाए 

मुस्कराते चेहरों पर,

दूरी पैदा की 

अपनों के बीच.


कितनों को ला खड़ा किया 

सड़क पर तुमने,

कितनों को भूख से 

बेहाल कर दिया,

कितनों को छीन लिया 

हमेशा-हमेशा के लिए.


देखो,

दिसंबर आ गया है,

अब तुम्हें जाना ही होगा,

कितना भी जालिम क्यों न हो कोई,

जाना ही होता है उसे कभी-न-कभी.

बुधवार, 2 दिसंबर 2020

५१०. कोरोना की वापसी



बड़ी मुश्किल से भगाया था तुमको,

पर तुम फिर लौट आए,

पहले जो तबाही मचाई थी,

उससे जी नहीं भरा तुम्हारा?

थोड़ी सी भी शर्म बची हो,

तो वापस लौट जाओ,

जिन्हें धक्के देकर निकाला जाता है,

वे इस तरह लौटा नहीं करते.

**

एक बार चला गया है,

पर वापस भी आ सकता है,

कोई राहगीर नहीं,

चोर उचक्का है,

उसे तुम्हारी अनुमति नहीं,

असावधानी का इंतज़ार है.


सोमवार, 30 नवंबर 2020

५०९. कोरोना में लाशें

लाइन में लगे-लगे 

थक गई हैं लाशें,

परेशान हैं,

जलने के इंतज़ार में हैं,

लाशें सोचती हैं 

कि मरने में उतनी मुश्किल नहीं हुई,

जितनी जलने में हो रही है. 

**

लाशें बेताब हैं

अस्पताल से छुट्टी के लिए,

उन्हें डर है 

कि मरीज़ उन्हें देखकर 

डर न जायँ,

बेमौत न मर जायँ.

**

चिता पर रखी लाश 

जल्दी जल जाना चाहती है,

उसे उन लाशों की चिंता है,

जो अपनी बारी के इंतज़ार में हैं.

शुक्रवार, 27 नवंबर 2020

५०८. मास्क

राग दिल्ली वेबसाइट(https://www.raagdelhi.com/) पर प्रकाशित मेरी कविताएँ 



मास्क – 1


तुम्हारे मुँह और नाक पर

मास्क लगा है,

पर तुम बोल सकते हो,

बोलना मत छोड़ो,

जब तक कि तुम्हें

पूरी तरह चुप न करा दिया जाय.

**

मास्क – 2


बहुत भोले हैं हम,

कहते हैं, मास्क के चलते  

लोग पहचाने नहीं जा रहे,

जैसे कि बिना मास्क के

पहचाने जा रहे थे.

**

मास्क – 3


मास्क लगाया ही है,

तो पूरी तरह लगाओ,

जब खुल के छिपा रहे हो,

तो आधा-अधूरा क्या छिपाना?

**

मास्क – 4


सभी घूम रहे हैं मास्क लगाकर,

सभी एक से लगते हैं,

वैसे भी क्या फ़र्क है

आदमी और आदमी में?

*****

बुधवार, 25 नवंबर 2020

५०७. दो गज की दूरी



दो गज की दूरी रखिए,

सुरक्षित रहिए,

पर याद रहे 

कि दिलों के क़रीब होने पर 

कोरोना के दिनों में भी 

कोई पाबंदी नहीं है. 

         **

थोड़ी दूरी बनाए रखिए,

बहुत ज़रूरी है इन दिनों,

पर इतनी दूर मत जाइए 

कि दिखाई ही न दे

चेहरों पर फैली उदासी. 

        **

दूरी बनाई,

साबुन लगाया,

सेनेटाइज़र छिड़का,

पास नहीं फटका कोरोना,

पर बच नहीं सका मैं 

पुरानी कड़वी यादों से.  

  



शनिवार, 21 नवंबर 2020

५०६. कोरोना में दूरी



इन दिनों ज़रूरी है 

दूरी बनाए रखना,

थोड़ी नहीं,ज़्यादा.


इन दिनों ज़रूरी है 

किसी के गले न लगना,

किसी से हाथ न मिलाना, 

किसी के पास न जाना.


इन दिनों ज़रूरी है 

दिलों का क़रीब होना,

इतना कि ज़रा सा भी 

फ़ासला न रहे.


इन दिनों ज़रूरी है 

दूसरों के काम आना,

उनका दर्द महसूस करना 

और यह सब संभव है 

दो गज की दूरी रखकर भी.


बुधवार, 18 नवंबर 2020

५०५. गूँगा

मुँह में ज़बान न होने का मतलब 

गूँगा होना नहीं है.

हो सकता है,

किसी के मुँह में ज़बान न हो,

पर वह आँखों से बोलता हो.

जो बोलता है,

वह गूँगा नहीं है,

भले वह आँखों से बोले.

वह आदमी ज़रूर गूँगा है,

जो बोल तो सकता है,

पर कुछ बोलता नहीं,

न ज़बान से, न आँखों से.

सोमवार, 16 नवंबर 2020

५०४. बेसुरा गीत



एक परिंदा कहीं से 

उड़ता हुआ आया,

गाने लगा कोई बेसुरा-सा गीत,

नाचने लगा कोई बेढंगा-सा नाच,

पर मुग्ध हो गई डाली,

झूमने लगी ख़ुशी से.


थोड़ी देर में उड़ जाएगा परिंदा,

बैठ जाएगा कहीं और जाकर,

पर झूमती रहेगी वह डाली,

जिस पर नृत्य किया था परिंदे ने 

और मन की गहराइयों से गाया था 

एक बेसुरा-सा गीत.


शनिवार, 14 नवंबर 2020

५०३. इस साल दिवाली में



इस साल दिवाली में 

बुझ गया एक दीया,

जिसे बुझना नहीं था.


उसमें तेल पूरा था,

उसकी बाती ठीक थी,

हवाएं भी ख़ामोश थीं,

फिर भी वह बुझ गया.


इस तरह असमय 

जब बुझ जाता है 

कोई जगमगाता दीया,

तो ऐसा घना अँधेरा छाता है

कि सैकड़ों दीये मिलकर भी 

उसे दूर नहीं कर सकते.

गुरुवार, 12 नवंबर 2020

५०२.मौत के बाद


वह कौन है,

जिसकी आवाज़ 

हर ओर सुनाई देती है,

जिसकी हँसी

हमेशा कानों में गूंजती है?

कई दिन बीत गए,

जिसे विदा किए,

पर जिसकी सूरत 

हर तरफ़ दिखाई पड़ती है.


यह कैसा भ्रम है

कि वह दिखता भी है 

और नहीं भी,

वह वाचाल भी है 

और चुप भी,

वह है भी 

और नहीं भी.


असल में वह नहीं है,

पर अपने न होने में 

वह पहले से कहीं ज़्यादा है,

जैसे कि वह पूरा ज़िन्दा हुआ हो 

अपनी मौत के बाद.


सोमवार, 9 नवंबर 2020

५०१. कलाकार से

सुनो कलाकार,

गली-गली घूमकर 

चिल्लाने से क्या फ़ायदा,

यहाँ सभी बहरे हैं,

कोई नहीं ख़रीदेगा

तुम्हारा सामान,

कोई नहीं पहचानेगा 

तुम्हारा हुनर.


अगर चाहते हो 

कि तुम्हारा सामान बिके,

तुम्हारे हुनर की क़द्र हो,

तो गली-गली घूमना छोड़ो,

चुपचाप घर बैठो.


यह बात गांठ बाँध लो

कि पुकारकर बेचने से 

अनमोल चीज़ की भी 

कोई क़ीमत नहीं होती.

शनिवार, 7 नवंबर 2020

५००. सीखने का समय



बहुत हो गया अब,

छोड़ो कॉपी-किताब,

फेंक दो चाक-पेंसिल,

बंद करो भागना अब 

घंटी की आवाज़ पर.


आओ, ज़रा खुले में चलें,

तितलियों के पीछे दौड़ें,

बंद आँखों पर महसूस करें,

बारिश की गिरती बूँदें.


देखो, सूर्यास्त के समय 

कैसे रंग बदलता है आकाश,

कैसे मौसम बदलते ही

रूप बदलता है पेड़.


चलो, नदी के किनारे चलें,

संगीत सुनें बहते पानी का,

कंकड़ फेंक कर देखें,

कैसे उछलता है पानी.


चलो, ज़ोर से दौड़ें

ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर,

छाले पड़ जायँ पाँवों में,

छिल जायँ घुटने.


उतार फेंकें बोझ,

आज खुलकर हँस लें,

बर्बाद कर दिया हमने 

बहुत सारा वक़्त,

अब सीखने का समय है. 

गुरुवार, 5 नवंबर 2020

४९९. चाँदनी



क्या आपने चाँद की ओर ताकते हुए 

कभी चाँदनी में नहाकर देखा है?

लगता है किसी छोटे से फव्वारे से 

ढेर सारी रौशनी बरस रही हो.


अचानक चाँद बादलों में छिप जाता है,

अतृप्ति का भाव मन में जगाता है,

पर थोड़ी देर में बादल छंट जाते हैं,

दूधिया चाँदनी फिर से बरसने लगती है .


कभी घर से निकलकर देखो

या खुली छत पर जाकर देखो,

अभी तो चाँद आकाश में है,

नहा लो जी भर के चाँदनी में,

फिर न जाने कितना इंतज़ार करना पड़े.


रातें अमावस की भी होती हैं

और कभी-कभी ऐसा भी होता है 

कि रात तो पूनम की होती है,

पर ज़िद्दी बादल चाँद को उगने नहीं देते.

सोमवार, 2 नवंबर 2020

४९८. पटरियाँ

 Rails, Soft, Gleise, Railway

रेलगाड़ी की पटरियाँ

चलती चली जाती हैं,

किसी पटरी से मिलती हैं,

तो किसी से बिछड़ती हैं,

कभी जंगलों से गुज़रती हैं,

तो कभी रेगिस्तानों से,

कभी चट्टानों से,

तो कभी मैदानों से.

कभी सख्त ज़मीन पर चलती हैं,

तो कभी मुलायम मिट्टी पर,

आख़िर एक जगह पहुँचकर

रुक जाती हैं रेल की पटरियाँ,

जीवन भी ऐसा ही है,

रेल की पटरियों जैसा.

मंगलवार, 27 अक्तूबर 2020

४९७. दुर्गा से



दुर्गा,

इस बार मैंने देखा,

तुम ज़रा उदास थी,

सिंह,जिस पर तुम सवार थी,

थोड़ा सुस्त-सा था,

शस्त्र जो तुमने थामे थे,

थोड़े कुंद-से थे,

महिषासुर के चेहरे पर 

थोड़ी निश्चिन्तता थी.


दुर्गा,

तुम्हें विदा करते हुए 

मैंने महसूस किया 

कि इस बार यहाँ आकर 

तुम्हें अच्छा नहीं लगा.


सोमवार, 26 अक्तूबर 2020

४९६. रावण का क़द


वे हर साल दशहरे पर 

रावण का पुतला जलाते हैं,

पर अगले साल उन्हें

बड़े क़द का रावण चाहिए,

वे ख़ुद नहीं जानते 

कि वे चाहते क्या हैं,

रावण को जलाना

या उसका क़द बढ़ाना.

***

हर साल जुटते हैं 

लाखों-करोड़ों लोग

रावण का पुतला जलाने,

पर न जाने क्यों 

अगले साल बढ़ जाता है 

रावण का क़द,

मैंने कभी बढ़ते नहीं देखा

जलानेवालों का क़द.

***

दस सिर हैं रावण के,

क़द भी बहुत बड़ा है,

पर डरो मत,

एक चिंगारी की देर है,

धधक उठेगा रावण,

जलकर राख हो जाएगा 

बस ज़रा-सी देर में.

शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2020

४९५. बच न जाय रावण



इस बार दुर्गापूजा फीकी है,

पंडालों में भीड़ कम है,

संगीत थोड़ा धीमा है,

रौशनी कुछ मद्धिम है,

लोग ज़रा सहमे से हैं,

देवी उदास-सी दिखती है.


दूर मैदान में खड़ा 

अट्टहास कर रहा है रावण,

मुझे डर है 

कि इस बार दशहरे में 

कहीं वह बच न जाय.

बुधवार, 21 अक्तूबर 2020

४९४. रावण की नाभि का अमृत



जब सोख लिया था 

रावण की नाभि का अमृत 

राम के अग्नि-वाण ने,

तभी मरा था रावण.


सदियाँ बीत गईं,

पर लगता है,

पूरा नहीं किया था काम

राम के अग्नि-वाण ने,

बच गया था 

रावण की नाभि में 

थोड़ा-सा अमृत.


तभी तो जीवित है 

अब तक रावण,

लौट आता है बार-बार 

किसी-न-किसी रूप में,

जलता है हर दशहरे में,

पर अट्टहास करता 

फिर आ धमकता है 

अगले दशहरे में.


क्या कोई राम आएगा,

जो मार दे रावण को

हमेशा के लिए,

क्या कोई ऐसा तीर होगा,

जो सोख सके 

रावण की नाभि का 

बचा-खुचा अमृत? 


सोमवार, 19 अक्तूबर 2020

४९३. ज़िन्दा



शांत पड़ा हूँ मैं बड़ी देर से,

यह चुप्पी अब खलने लगी है,

मुझ पर एक उपकार करो,

कहीं से कोई पत्थर उठाओ,

खींचकर मारो मेरी ओर,

हलचल मचा दो मुझमें,

चोट लगे तो लग जाय ,

पर महसूस तो हो मुझे 

कि मैं अभी ज़िन्दा हूँ.

शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2020

४९२. तूफ़ान में दूब



उस दिन तेज़ तूफ़ान आया,

ज़ोर की आंधियां चलीं,

धुआंधार बारिश हुई,

धराशाई हो गए विशालकाय पेड़,

टेढ़े-मेढ़े हो गए बिजली के खम्भे.

गिर गईं बहुत-सी झोपड़ियाँ,

ढह गए कच्चे मकान,

पक्के मकानों ने भी सहा 

ख़ूब सारा नुकसान.


इस भीषण तबाही में भी 

बच गई सही-सलामत 

धरती की गोद में छिपी 

नन्ही, कमज़ोर-सी दूब.

बुधवार, 14 अक्तूबर 2020

४९१. कविता




जब भी बैठता हूँ मैं कविता लिखने,

न जाने क्यों,

मेरे शब्द अनियंत्रित हो जाते हैं,

कोमल शब्दों की जगह 

काग़ज़ पर बिखरने लगते हैं 

आग उगलते शब्द,

काँटों से चुभने लगते हैं उन्हें,

जो मेरी कविताएँ पढ़ते हैं.


उन्हें लगता है 

कि मैं वैसी कविताएँ क्यों नहीं लिखता,

जो राजाओं की तारीफ़ में लिखी जाती थीं,

जिन्हें कवि दरबार में सुनाते थे,

वाहवाही और ईनाम पाते थे.


मैं चाहता तो हूँ,

पर लिख नहीं पाता ऐसी कविताएँ,

अवश हो जाता हूँ मैं,

मेरी लेखनी मुझे अनसुना कर 

एक अलग ही रास्ते पर चल पड़ती है,

उसे दुनियादारी की कोई समझ नहीं है.

 


शनिवार, 10 अक्तूबर 2020

४९०. कैसे लोग हो तुम?



कैसे लोग हो तुम,

जो लड़ते ही रहते हो,

कभी किसी छोटी,

तो कभी बड़ी बात पर,

कभी इस बात पर,

तो कभी उस बात पर.


अगर एक बार लड़ाई 

शुरू हो जाय,

तो उसे बढ़ाते ही रहते हो,

ख़त्म ही नहीं करते.


तुम ख़ुद को बड़ा कहते हो,

पर तुमसे अच्छे तो बच्चे हैं,

जो अगर आज लड़ते हैं,

तो कल साथ खेलने लगते हैं.

मंगलवार, 6 अक्तूबर 2020

४८९. शिव से




शिव,

तुम अनाचार देख रहे हो न,

कौन किसके गले में 

सांप डाल रहा है,

ख़ुद अमृत पीकर 

दूसरों को विषपान करा रहा है,

कौन ज़िम्मेदारियों से मुक्त होकर 

कर्तव्य की गंगा का बोझ 

दूसरों के सिर डाल रहा है.


कौन है,

जो ख़ुद रह रहा है 

आलीशान इमारतों में 

और दूसरों को भेज रहा है 

हिमालय के एकांत में,

ख़ुद भोग रहा है सारे सुख 

और दूसरों को रख रहा है 

नंग-धडंग....


शिव,

कब खोलोगे तुम तीसरा नेत्र,

कब बजेगा तुम्हारा डमरू, 

कब चलेगा तुम्हारा त्रिशूल,

शिव, कब करोगे तुम तांडव?

शनिवार, 3 अक्तूबर 2020

४८८. उन दिनों की वापसी

सुनो,

मुझे वे दिन याद आते हैं,

जब सड़कों पर मिलने के 

ढेर सारे मौक़े हुआ करते थे,

पर हम कतराकर निकल जाते थे.


तब किसी को गले लगाना 

कोई डर की बात नहीं थी,

हम फिर भी बचते रहते थे,

पर अब सालता है दर्द 

इन मौक़ों के खो जाने का.


कभी तो कोरोना हारेगा,

कभी तो वे मौक़े फिर आएँगे,

पर क्या हम ख़ुद को बदल पाएंगे?

क्या हम किसी को गले लगा पाएंगे?




बुधवार, 30 सितंबर 2020

४८७. शिकायत



रेलगाड़ी,

रोज़ तो तुम देर से आती हो,

आज उन्हें जाना है,

तो समय पर आ धमकी?

कौन-सी बदनामी हो जाती,

जो आज भी तुम देर से आती?

क्या बिगड़ जाता तुम्हारा,

जो सिग्नल पर ज़रा रुक जाती?

कौन सा अनर्थ हो जाता,

जो थोड़ी देर सुस्ता लेती?

जिन्हें जाना था,वे तो नहीं माने,

पर तुमने कौन सी दुश्मनी निभाई,

मैंने क्या बिगाड़ा था तुम्हारा, 

रेलगाड़ी, तुमने क्यों जल्दी दिखाई?

रविवार, 27 सितंबर 2020

४८६. मिलन



नदी समंदर से मिली,

तो पता चला 

कि वह तो खारा था,

नदी ने सोचा,

खारे समंदर के साथ रह लेगी,

दोनों की अलग पहचान होगी,

पर समंदर को यह मंज़ूर नहीं था,

वह आमादा था 

कि मीठी नदी भी 

उसकी तरह खारी हो जाय.


अंत में वही हुआ 

जो समंदर चाहता था,

समंदर अब ख़ुश है.

शुक्रवार, 25 सितंबर 2020

४८५. अंतरात्मा



सुनो, महामारी के दौर में 

ख़ुद से ज़रा बाहर निकल जाना,

थोड़ी दूर रहकर 

ध्यान से देखना

कि क्या कुछ बचा है तुममें,

ख़ासकर अंतरात्मा बची है क्या,

अगर मर गई है, तो कैसे,

कोरोना तो नहीं मार सकता उसे.

मंगलवार, 22 सितंबर 2020

४८४. गाँव का स्टेशन


गाँव का छोटा-सा स्टेशन

अच्छा लगता है मुझे,

दिन में एकाध गाड़ी रूकती है यहाँ,

थोड़े-से यात्री चढ़ते हैं यहाँ से,

थोड़े-से उतरते हैं यहाँ.


इसी स्टेशन की बेंच पर बैठकर 

मैंने बुने थे भविष्य के सपने,

बनाई थीं तमाम योजनाएं,

लिखी थीं दर्जनों कविताएँ,

इसी के कोने पर बैठकर 

मैंने पहली बार उसे देखा था.


गाँव का यह स्टेशन न होता,

यह बेंच न होती,

तो बहुत से रिश्ते 

शायद रह जाते बनने से.


क्या अब भी आप पूछेंगे 

कि गाँव का यह छोटा-सा स्टेशन 

मुझे इतना पसंद क्यों है?

रविवार, 20 सितंबर 2020

४८३. ख़ुशी



ज़िन्दगी बीत गई तुम्हें ढूंढ़ते,

पर तुम मिली ही नहीं,

अब तो बता दो अपना पता,

अब वक़्त ज़रा कम है.

           ***

मैंने दुखी लोगों से पूछा,

ख़ुशी कहाँ है?

वे बोले,पता होता,

तो दुखी क्यों होते?

मैंने उनसे भी पूछा 

जो ख़ुश  रहते  हैं,

वे बोले, यह क्या सवाल है?

ख़ुशी कहाँ नहीं है?

          ***

मैं तुम्हें खोजता रहा बाहर,

पर तुम तो अन्दर ही थी,

कभी तुमने आवाज़ नहीं दी,

कभी मैंने अन्दर नहीं झाँका.


शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

४८२.सेमल




बगीचे में चुपचाप खड़ा 

एक सेमल का पेड़ 

कितने रंग दिखाता है,

कभी हरे पत्ते,

कभी गहरे लाल फूल,

तो कभी सूखे पीले पत्ते.


कभी-कभी तो सेमल 

बिल्कुल ठूंठ बन जाता है,

न पत्ते, न फूल,

उसकी एक-एक हड्डी 

साफ़-साफ़ दिखाई पड़ती है.


जब लगता है 

कि अब सेमल चुक गया,

दिन लद गए उसके,

वह लौटता है पूरी ताक़त से 

और बिछा देता है ज़मीन पर 

सफ़ेद,कोमल रूई का ग़लीचा.

मंगलवार, 15 सितंबर 2020

४८१. इन दिनों



आजकल मेरे साथ कोई नहीं,

पर मैं अकेला नहीं हूँ.


सुबह-सवेरे आ जाते हैं 

मुझसे मिलने परिंदे,

मैं अपनी बालकनी में 

आराम-कुर्सी पर बैठ जाता हूँ,

वे मुंडेर पर जम जाते हैं,

फिर ख़ूब बातें करते हैं हम.


मैं खिड़की के पार 

पेड़ों पर उग आईं

कोमल पत्तियों को देखता हूँ,

हवा में झूमती 

डालियों को देखता हूँ.


मैं गमलों में खिल रहे 

फूलों को देखता हूँ,

कलियों को देखता हूँ,

जो फूल बनने के इंतज़ार में हैं.


मैं देखता हूँ 

आकाश को लाल होते,

सूरज को निकलते,

उसे रंग बदलते.


शाम को सूरज से मिलने 

मैं फिर पहुँच जाता हूँ,

देखता हूँ उसका रंग बदलना

और धीरे-धीरे डूब जाना.


रात को बालकनी से 

मैं देखता हूँ घटते-बढ़ते चाँद को,

बादलों से उसकी लुकाछिपी,

फिर थककर सो जाता हूँ.


आजकल मैं अकेला नहीं हूँ,

न ही फ़ुर्सत में हूँ,

आजकल मैं उनके साथ हूँ 

जिनकी मैंने हमेशा अनदेखी की है.


रविवार, 13 सितंबर 2020

४८०. फ़ोटो

Photographer, Camera, Lens, Photo

मुझे रहने ही दो 

फ़ोटो से बाहर,

मुझे शामिल करोगे,

तो दिक्कत होगी तुम्हें.


मैं साफ़ कपड़े पहन लूँगा,

बाल बनवा लूँगा,

दाढ़ी-मूंछ कटवा लूँगा,

इत्र भी छिड़क लूँगा,

भले ही वह फ़ोटो में न आए,

पर क्लिक करते वक़्त 

जब तुम कहोगे 

कि मुस्कराओ,

तो मैं मुस्करा नहीं पाऊंगा.


मुझे नहीं आती

अन्दर से दुखी होकर 

बाहर से मुस्कराने की कला 

और तुम नहीं चाहोगे 

कोई ऐसा फ़ोटो खींचना,

जो सच बयाँ करे.

शुक्रवार, 11 सितंबर 2020

४७९. अनुभूति

silhouette of trees near mountain during sunset

आज कहीं नहीं जाना,

तो ऐसा करो,

अपने अन्दर उतरो,

गहरे तक उतरो.


तुम हैरान रह जाओगे,

वहां तुम्हें जाले मिलेंगे,

गन्दगी मिलेगी,

फैली हुई मिलेगी 

सड़ांध हर कोने में.


अपने अन्दर उतरोगे,

तो तुम्हें वह सब मिलेगा,

जो तुम हमेशा सोचते थे 

कि तुम्हारे अन्दर नहीं,

कहीं बाहर है.

मंगलवार, 8 सितंबर 2020

४७८. तीन कविताएँ


'रागदिल्ली' वेबसाइट पर प्रकाशित मेरी तीन कविताएँ.

बारिश से

बारिश, आज ज़रा जम के बरसना,
उन काँपती बूढ़ी हथेलियों में
थोड़ी देर के लिए ठहर जाना,
बहुत दिन हुए,
उन झुर्रियों को किसी ने छुआ नहीं है....

(पूरा पढ़ने के लिए लिंक खोलें)

https://www.raagdelhi.com/hindi-poetry-onkar/?


शनिवार, 5 सितंबर 2020

४७७.तीर

दशरथ ने चलाया है 

शब्दभेदी वाण,

मारा गया है श्रवण,

अनाथ हो गए हैं 

उसके अंधे माँ-बाप.


अफ़सोस है दशरथ को,

अयोध्यापति है वह,

पर उसके वश में नहीं है 

नुकसान की भरपाई करना.


मैं समझ नहीं पाता 

कि जिनके निशाने अचूक होते हैं,

वे किस अधिकार से 

बिना सोचे समझे 

कहीं भी तीर चला देते हैं?

बुधवार, 2 सितंबर 2020

४७६. बादलों से

Cloudy, Dark, Full Moon, Luna, Moon

बादलों,

मैं चाँद को देख रहा था 

और चाँद मुझे,

तुम क्यों आ गए बीच में ?

इतनी बड़ी दुनिया में 

कहीं भी चले जाते,

बस चाँद-भर आकाश छोड़ देते,

बाक़ी सब तुम्हारा था.

***

बादलों,

चाँद को छिपाकर

इतना मत इतराओ,

मैं देख सकता हूँ उसे 

आँखें बंद करके,

तुम्हारे होते हुए भी.

***

बादलों,

मैं कब से इंतज़ार में था 

कि चाँद निकले,

वह निकला भी,

पर तुमने उसे छिपा लिया,

बिना उससे पूछे 

कि वह छिपना चाहता था क्या?

अब हट भी जाओ रास्ते से,

तुम्हें नहीं पता,

पर मैं जानता हूँ 

कि चाँद बहुत उदास होगा.

शनिवार, 29 अगस्त 2020

४७५. तूफ़ान

Key West, Florida, Hurricane Dennis

कल शाम तेज़ तूफ़ान आया,

भटकता रहा गलियों में,

चिल्लाता रहा ज़ोर-ज़ोर से,

पेड़ों को झकझोरता रहा 

काग़ज़ के टुकड़े उड़ाता रहा,

पीटता रहा दरवाज़े-खिड़कियाँ.


कोई नहीं मिला उसे, 

न सड़कों पर,न गलियों में,

किसी ने नहीं खोला दरवाज़ा.


कल शाम तूफ़ान 

मिलना चाहता था किसी से,

मुलाक़ात नहीं हुई,

तो फूट-फूट रोया,

सबने कहा,

तेज़ बरसात हो रही है.

गुरुवार, 27 अगस्त 2020

४७४. औरतें

Cacti, Cactus, Cactuses, Plants, Cactus

कैक्टस जैसी होती हैं औरतें,

तपते रेगिस्तान में 

बिना पानी, बिना खाद के 

जीवित रहती हैं.

उनके नसीब में नहीं होते 

फूल,पत्ते,कलियाँ, 

ठूंठ की तरह उम्र भर 

जीना पड़ता है उन्हें.

काँटों-भरी होती हैं औरतें,

उनके कांटे हरदम 

उन्हीं को चुभते रहते हैं.


सोमवार, 24 अगस्त 2020

४७३.नाम

Girl, Woman, Female, Person, Mountain

मुझे अच्छा लगता है अपना नाम,

जब पुकारता है कोई धीरे से 

अक्षर-अक्षर में भरकर 

ढेर-सारा प्यार.


भीगी हवाओं की तरह 

मेरे कानों तक पहुँचता है मेरा नाम,

ख़ुशी से भर देता है मेरा पोर-पोर.


मैं कोई जवाब नहीं देता,

बस कान खुले रखता हूँ,

चाहता हूँ कि पुकारनेवाला 

पुकारता ही रहे मेरा नाम,

जवाब दे दूंगा,तो कैसे सुनूँगा

बार-बार लगातार 

उसके मुँह से अपना नाम?

शुक्रवार, 21 अगस्त 2020

४७२.गठरी

Old, Lady, Woman, Elderly, Clothing, Women, Scarf

वह गठरी,

जो कोनेवाले कमरे में पड़ी है,

आज ख़ुश है,

थोड़ी हिलडुल रही है.


गठरी को उम्मीद है 

कि बरसों बाद फिरेंगे 

उसके भी दिन,

आएगा कोई-न-कोई,

पूछेगा उसका हालचाल.


गठरी ने सुना है,

आज सब घर में हैं,

घर में ही रहेंगे,

अगले कई दिनों तक.


गठरी सोचती है,

वह खुलेगी नहीं,

कुछ बोलेगी नहीं,

बस चुपचाप सुनेगी,

गंवाएगी  नहीं  ऐसे पल,

जो बड़ी मुश्किल से मिलते हैं.

मंगलवार, 18 अगस्त 2020

४७१. आँसू

Sad, Cry, Tear, Facebook, Reaction

मेरे आँसू मेरी बात नहीं सुनते,

मैं बहुत कहता हूँ 

कि पलकों तक मत आना,

अगर आ भी जाओ,

तो बाहर मत निकलना,

पर आँसू कहते हैं,

'सब कुछ तुम पर निर्भर है,

तुम बहुत ख़ुश

या बहुत उदास मत हुआ करो,

हम दूर ही रहेंगे,

किसी को पता नहीं चलेगा 

कि तुम रोते भी हो.

वैसे हमें इतना समझा दो 

कि हम सामने आते हैं,

तो तुम्हें शर्म क्यों आती है,

आख़िर तुम भी तो आदमी हो.'

शुक्रवार, 14 अगस्त 2020

४७०. दीवारें

Door, Contemporary, Within, Wall


अक्सर मैं सोचता हूँ 

कि मेरे दफ़्तर जाने के बाद 

घर की दीवारें 

मेरे बारे में क्या सोचती होंगी.


मेरी आलोचना करती होंगी 

या तारीफ़?

मेरे साथ उदास रहती होंगी 

या ख़ुश?

मुझे अच्छा समझती होंगी 

या बुरा?


मैं सालों से यहीं रहता हूँ,

पर दीवारों ने मुझे

कभी कुछ नहीं कहा,

न ही मैंने कभी पूछा.


कभी-कभार मैं 

जल्दी घर आ जाता हूँ,

पर न जाने कैसे 

दीवारों को पता चल जाता है 

और वे हमेशा की तरह 

ख़ामोश हो जाती हैं.



बुधवार, 12 अगस्त 2020

४६९. खेतों की कविताएँ

 Seed, Sowing, Shoots, Young, Fresh

इस बार जब  

खेत में बोओ 

धान या गेहूँ,

तो मुझे बता देना .


मैं भी बो दूंगा 

आस-पास वहीं 

कविताओं  के बीज,

डाल दूंगा थोड़ी 

कल्पनाओं की खाद,

भावनाओं का पानी.


उन्हीं बीजों से निकलेंगी

खेतों की कविताएँ,

जिनमें महकेगी मिट्टी,

झूमेंगी बालियाँ,

जिनको खोलो,

तो दिखेंगे

धान और गेंहूं के दाने.

रविवार, 9 अगस्त 2020

४६८. पानी

Water, Wastage, Save, Water Public, Tap


मेरे गाँव की औरतें 

जमा होती हैं रोज़ 

सुबह-शाम पनघट पर.

घर से लेकर आती हैं 

मटका-भर उदासी,

वापस ले जाती हैं 

थोड़ा-सा पानी 

और ढेर सारी ख़ुशी.

शुक्रवार, 7 अगस्त 2020

४६७. सरहद के उस ओर

 'रागदिल्ली' वेबसाइट पर प्रकाशित मेरी कविता:


मैं सरहद के इस ओर से देखता हूँ

उस ओर की हरियाली,

कंटीली तारें नहीं रोक पातीं

मेरी लालची नज़रों को.

सतर्क खड़े हैं बाँके जवान

इस ओर भी, उस ओर भी,

पर वे चुप हैं,

उनकी संगीनें भी चुप हैं.


पूरी कविता पढ़ने के लिए लिंक खोलें. https://www.raagdelhi.com/poetry-onkar-3/