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मंगलवार, 3 सितंबर 2024

६८३. ये लौटकर नहीं आएँगे

 

कोरोना से संबंधित ५१ कविताओं का मेरा संकलन 'मौन की आवाज़' हाल ही में प्रकाशित हुआ है। यह अमेज़न पर उपलब्ध है। क़ीमत 49 रुपए है। इसी संकलन की एक कविता, 'ये लौटकर नहीं आएँगे':

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ये जो मामूली-से बीमार लगते हैं,
मैं जानता हूँ, लौटकर नहीं आएँगे।

इनसे कहो, एक बार मास्क हटा लें,
डबडबाई आँखों से सब को देख लें,
दूर से ही सही, अंतिम विदा ले लें,
मैं जानता हूँ, ये लौटकर नहीं आएँगे।

कुछ दबा हो मन में, तो कह दें,
कोई आख़िरी इच्छा हो, तो पूरी कर लें,
इस घर, इस आँगन को निहार लें,
मैं जानता हूँ, ये लौटकर नहीं आएँगे।

सायरन बजाती एम्बुलेंस इन्हें ले जाएगी,
आवाज़ सुनकर लोग चौंकेंगे नहीं,
बस अपनी खिड़कियों से झांकेंगे,
मौत के डर से सिहर जाएंगे,
वे जानते हैं, ये लौटकर नहीं आएँगे।

ये जो मामूली-से बीमार लगते हैं,
लौटा दिए जाएँगे अस्पतालों से,
लावारिस सामान की तरह ठोकरें खाएंगे,
ऑक्सीजन की कमी से मारे जाएंगे,
सब जानते हैं, ये लौटकर नहीं आएँगे।




सोमवार, 26 अगस्त 2024

682.कृष्ण से

 




कृष्ण,

आज फिर से जन्म लो,

नए इरादों के साथ, 

नई समस्याओं से निपटने। 


कृष्ण,

अब तुम्हारे पास समय नहीं 

कि मधुबन में गाएँ चराओ, 

गोपियों-संग रास रचाओ,

ग्वालों के साथ खेलो,

हांडियों से माखन चुराओ। 


कृष्ण,

अब कालिया-दमन नहीं, 

पूतना-वध नहीं,

उंगली पर गोवर्धन-धारण नहीं,

बड़े-बड़े काम पड़े हैं, 

चुनौतियाँ बहुत बड़ी हैं। 


कृष्ण, 

अब एक द्रौपदी नहीं, 

कई-कई द्रौपदियाँ

एक साथ पुकार रही हैं तुम्हें, 

तुम्हें हर जगह जाना है, 

दुःशासन को ठिकाने लगाना है। 


कृष्ण,

अब काफ़ी नहीं 

कि तुम किसी के सारथी बन जाओ,

यह महाभारत भीषण है, 

इसमें तुम्हें अस्त्र उठाना होगा

और शायद अकेला सुदर्शन-चक्र 

इसे जीतने के लिए काफ़ी न हो। 



शनिवार, 24 अगस्त 2024

७८१.किताबों की शिकायत

 


मेरे घर में बहुत-सी किताबें हैं,

कुछ अधपढ़ीं, कुछ अनपढीं।


किताबें ख़रीदने का शौक़ है मुझे, 

पर पढ़ने का नहीं, 

अच्छी लगती हैं मुझे 

अलमारियों में किताबें,

जैसे खिड़कियों पर परदे,

सेंटर टेबल पर गुलदान,

दीवारों पर पेंटिंग्स,

बालकनी में गमले


मेरे घर में किताबों का दम घुटता है, 

कभी-कभी वे कहती हैं,

हमें नहीं पढ़ना, तो न सही, 

कम-से-कम खोलकर तो देखो,

हम भी कभी हवा में साँस लें, 

हम भी कभी बाहर की दुनिया  देखें।


मैं कोई जवाब नहीं देता, 

वैसे तो मेरे घर में बहुत-सी किताबें हैं, 

पर मुझे नहीं आता

किताबों से बात करना।  



मंगलवार, 20 अगस्त 2024

कोरोना पर लिखी गईं मेरी 51 कविताओं का संकलन ‘मौन की आवाज़’ अब amazon पर उपलब्ध  है. इन कविताओं में सिर्फ़ मेरे ही नहीं, आप सभी के अनुभव हैं, क्योंकि कोरोना से कोई अछूता नहीं रहा. लाखों मज़दूरों का गांवों की ओर पलायन, अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी, श्मशान-घाटों में क़तारें- मैंने हर पहलू को इन कविताओं में समेटने की कोशिश की है. उस समय की आशंकाएँ, अपेक्षाएँ, दरियादिली,ओछापन - सबकी झलक इन कविताओं में मिल जाएगी. 


कोरोना बीत चुका है, पर शायद उसे इतनी जल्दी भूल जाना ठीक नहीं है. हर त्रासदी बहुत कुछ सिखाकर जाती है. उसको भूल जाने का अर्थ उसकी सीख को भी भूल जाना होता है. त्रासदियाँ तो आती ही रहती हैं- कोरोना नहीं तो कुछ और. एक त्रासदी जो सिखाकर जाती है, वह दूसरी से लड़ने में हमारी मदद करती है. यह हमें आत्म-मंथन का मौक़ा भी देती है. त्रासदी में ही हमारे चरित्र का पता चलता है. जब सब कुछ ठीक चल रहा हो, तो हमें ख़ुद को और दूसरों को आजमाने का मौक़ा ही नहीं मिलता. 


उम्मीद है कि ये कविताएँ अपने पाठकों को इस सदी की सबसे बड़ी त्रासदी को जल्दी भूलने नहीं देंगी. ये हमें अपनी कमज़ोरियों की याद दिलाती रहेंगी और अपनी ताक़त की भी. ये हमें यह भी याद दिलाती रहेंगी कि त्रासदी कितनी भी बड़ी हो, उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिए. 


‘मौन की आवाज़’ कोरोना पर मेरी कविताओं का तीसरा संकलन है. पहला संकलन ‘जमी हुई ख़ामोशी’ और दूसरा ‘पत्तों पर अटकी बूँदें’ के नाम से प्रकाशित हो चुका है. आशा है कि इन दो संकलनों की तरह यह संकलन भी आपको अच्छा लगेगा. इसे 49 रुपए में ख़रीदा जा सकता है। लिंक यह है-


https://www.amazon.in/dp/B0DDQ8DNZ3





रविवार, 18 अगस्त 2024

७८०. साइकिल चलानेवाली लड़कियाँ

 


मुझे बहुत अच्छी लगती हैं 

साइकिल चलानेवाली लड़कियाँ।


जब वे पैडल मारते हुए निकलती हैं, 

बहुत बहादुर लगती हैं, 

जब दोनों हाथों से हैंडल थामती हैं, 

तो लगता है, यक़ीन है उन्हें ख़ुद पर. 


सीट पर बैठी लड़कियाँ जानती हैं 

हर हाल में संतुलन बनाए रखना, 

छोटे-मोटे पत्थरों की परवाह नहीं करतीं 

साइकिल चलानेवाली लड़कियाँ।


उन्हें पता होता है 

कि कहाँ रुकना है,

कितना रुकना है, 

क्यों रुकना है, 

कि उनकी मंज़िल कहाँ है।


बहुत मज़बूत होती हैं 

कमर में दुपट्टा खोंसे 

साइकिल चलानेवाली लड़कियाँ,

इससे पहले कि वे घंटी बजाएँ,

मैं किनारे हो जाता हूँ, 

मुस्कुराते हुए सर्र से गुज़र जाती हैं 

देखने में दुबली-पतली

साइकिल चलानेवाली लड़कियाँ। 



गुरुवार, 8 अगस्त 2024

७७९. मौसम

 


शादी के लिए नहीं होता 

कोई भी मौसम सही मौसम,

जैसे बुरा सपना देखने के लिए 

सही नहीं होती कोई भी रात. 

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ज्योतिषी हर साल बताता है 

शादी का सही मौसम,

पर कभी नहीं बताता,

तलाक़ का सही मौसम. 

**

शादी के मौसम में 

मत उछलो मेंढकों की तरह,

इतना तो मेंढक भी नहीं उछलते

बरसात के मौसम में.  



रविवार, 4 अगस्त 2024

७७८. मुग़ालता

 


किसी मुग़ालते में मत रहो, 

कोई दुखी नहीं होगा 

तुम्हारे मरने पर,

सब परेशान हैं तुम्हारी बीमारी से. 

तुम मरोगे, तो सब कहेंगे,

‘अच्छा हुआ,

कष्ट से मुक्ति मिली.’


मुक्ति उन्हें भी मिलेगी,

जो पीछे छूट जाएंगे,

वे झूमेंगे-नाचेंगे,

ख़ुश नज़र आएँगे,

तुम देख सकते,

तो भ्रम में पड़ जाते 

कि यह क्या है, 

तुम्हारी शव-यात्रा या बारात? 



रविवार, 28 जुलाई 2024

पत्तों पर अटकी बूँदें- कोरोना की कविताएँ

 

साथियों, 

कोरोना पर लिखी गईं मेरी 51 कविताओं का संकलन ‘पत्तों पर अटकी बूँदें’ अब अमेज़न पर उपलब्ध है. इन कविताओं में सिर्फ़ मेरे अनुभव ही नहीं, आप सभी के अनुभव हैं, क्योंकि कोरोना से कोई अछूता नहीं रहा. लाखों मज़दूरों का अपने गांवों की ओर पलायन, अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी, श्मशान-घाटों में क़तारें- मैंने हर पहलू को इन कविताओं में समेटने की कोशिश की है. किताब का मूल्य 49 रुपए है. आप इस लिंक पर जाकर ऑर्डर कर सकते हैं. 


https://amzn.in/d/0dTVKR7f


अमेज़न अनलिमिटेड के सदस्यों के लिए यह मुफ़्त उपलब्ध है. 



बुधवार, 24 जुलाई 2024

७७७. तुम याद आती हो

 


तुम याद आती हो,

जैसे आते हैं

लू के मौसम में बादल, 

जैसे आती हैं 

सावन के मौसम में फुहारें,

जैसे वसंत में आती है 

बाग़ों में ख़ुश्बू,

जैसे किसी ठूँठ पर 

बैठती है चिड़िया,

जैसे आता है 

सूखी नदी में पानी. 


तुम याद आती हो,

तो देर तक ठहरती हो, 

जैसे लम्बी उड़ान के बाद 

घोंसले में लौटते हैं परिंदे,

जैसे गहराता है अँधेरा 

सूरज डूबने के बाद. 


तुम याद आती हो,

तो रुक जाते हैं सारे काम,

तुम याद आती हो,

तो ऐसे आती हो,

जैसे आते हैं 

भूकंप के झटके. 



शनिवार, 20 जुलाई 2024

७७६.किताबें

 


किताबें, जिनसे बचपन में 

बड़ी दोस्ती हुआ करती थी मेरी,

अब अजनबी लगती हैं, 

वे तैयार हैं पढ़े जाने के लिए,

मैंने ही अनदेखी की है उनकी. 


इतना मसरूफ़ हूँ मैं दुनियादारी में 

कि उनकी ओर देखता तक नहीं,

जबकि वे अलमारी में बंद 

हर पल मुझे ताकती रहती हैं.


कभी-कभी मैं फ़ुर्सत में होता हूँ, 

पर किताबें नहीं पढता, 

यह मुझे वक़्त की बर्बादी लगता है,

बाक़ी सारे काम बेहतर लगते हैं.  


किताबें कहती हैं, 

तुमने रिश्ता नहीं निभाया,

इतना पास रखकर भी

हमें ख़ुद से इतना दूर रखा, 

कभी हमें पढ़कर तो देखो, 

तुम्हें देने के लिए 

हमारे पास कितना कुछ है.

 


रविवार, 14 जुलाई 2024

७७५. सभी टूटेंगे

 


शादी के मौसम में 

कई लोग जुड़ेंगे,

न जाने जुड़ेंगे या टूटेंगे


कुछ टूटेंगे झटके से 

जैसे टूटता है तिनका,

कुछ टूटेंगे आहिस्ता से,

जैसे टूटते हैं किनारे. 


कुछ अपने आप टूटेंगे,

कुछ टूटेंगे दबाव में,

कुछ आवाज़ के साथ टूटेंगे,

कुछ टूटेंगे चुपचाप. 


कुछ टूट तो जाएंगे,

पर अलग नहीं होंगे,

जैसे पेड़ से चिपकी हो 

अधटूटी टहनी. 


कुछ अलग तो हो जाएंगे,

पर टूटेंगे नहीं,

नए रास्ते खोजेंगे,

नई पगडंडियां बनाएंगे. 


कुछ टूटकर दुबारा जुड़ जाएंगे,

ऐसे कि पता ही न चले 

कि कभी टूटे भी थे, 

कुछ जुड़ तो जाएंगे,

पर एक दरार के साथ,

जो जीवित रखेगी 

फिर से टूटने की संभावना. 


थोड़ा-बहुत सभी टूटेंगे,

पर सबसे ज़्यादा वही टूटेंगे,

जिन्हें देखकर लगेगा 

कि ये कभी नहीं टूटेंगे. 


सोमवार, 8 जुलाई 2024

७७४. वह महिला

 


वह महिला सबसे अलग है,

कुछ कहो, तो आँसू नहीं बहाती,

न ही चुप रहती है,

बहस करती है, 

पलटकर जवाब देती है. 


वह महिला निर्भर नहीं 

किसी पुरुष पर,

उसे नहीं चाहिए 

किसी की मंज़ूरी,

नहीं चाहिए 

किसी का सहारा,

किसी का समर्थन. 


वह पहनती है 

अपनी पसंद की पोशाक,

खाती है अपनी पसंद का खाना,

सुनती है अपनी पसंद के गीत,

जाती है, जहाँ वह जाना चाहे, 

नाचती है जब उसका जी करे,

हँसती है, जब हँसना चाहे,

करती है, जो उसका मन करे. 


वह महिला जानती है, 

वह किसी से कम नहीं,

बहुत ख़तरनाक है वह महिला,

उस पर नज़र रखना ज़रूरी है.