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शुक्रवार, 29 दिसंबर 2017

२९१. नए साल से


नए साल,
मैंने पलकें बिछा दी हैं 
तुम्हारे स्वागत में,
तैयारी कर ली है जश्न की;
इंतज़ाम कर लिया है 
थोड़ी-सी आतिशबाजी,
थोड़े से संगीत का;
फैसला कर लिया है 
कि दिसंबर की सर्दी में
आधी रात तक जागकर
तुम्हारे आने का इंतज़ार करूंगा ;
ख़ुशी से चीखूंगा,
नाचूँगा, सीटियाँ बजाऊँगा,
जैसे ही तुम पहुँचोगे.

नए साल,
मान रखना मेरे स्वागत का,
टूटने न देना मेरी उम्मीदों को,
मेरे साथ रहना, मेरे बनकर,
गुज़र जाने देना मुझे ख़ुद में से,
जैसे पानी में से मछली.

कोई लम्बा कमिटमेंट नहीं,
बस तीन सौ पैंसठ दिन की बात है.

शनिवार, 23 दिसंबर 2017

२९०. ज़िम्मेदारी

वह जो भी है,
उसका श्रेय या दोष 
उन्हें दो,
जिन्होंने उसे बनाया है. 

उसके माता-पिता,
उसका परिवार,
उसके गुरु,
उसके मित्र 
और वे अनगिनत लोग,
जो उससे जुड़े.

ईंट-ईंट जुड़कर 
सीमेंट-सरिया मिलकर 
इमारत बनती है.

अगर वह सिर उठाए 
बुलंद खड़ी रहे,
तो श्रेय इमारत को नहीं,
हर उस हाथ को है,
जिसने उसमें ईंट रखी,
सीमेंट-सरिया मिलाया.

और अगर इमारत 
भरभराकर गिर जाय,
तो तबाही की ज़िम्मेदारी 
वही लोग लें,
जिन्होंने उसे बनाया था.

शुक्रवार, 15 दिसंबर 2017

२८९. राक्षस

कभी अपने अन्दर का 
राक्षस देखना हो,
तो उग्र भीड़ में 
शामिल हो जाना.

जब भीड़ से निकलो,
तो सोचना 
कि जिसने पत्थर फेंके थे,
आगजनी की थी,
तोड़-फोड़ की थी,
बेगुनाहों पर जुल्म किया था,
जिसमें न प्यार था, न ममता,
न इंसानियत थी, न करुणा,
जो बिना वज़ह 
पागलों-सी हरकतें कर रहा था,
वह कौन था?

उसे जान लो,
अच्छी तरह पहचान लो,
देखो, तुम्हें पता ही नहीं था 
कि वह तुम्हारे अन्दर ही 
कहीं छिपा बैठा है.

शुक्रवार, 8 दिसंबर 2017

२८८. स्टेशन

मैं चुपचाप जा रहा था ट्रेन से,
न जाने तुम कहाँ से चढ़ी 
मेरे ही डिब्बे में
और आकर बैठ गई 
मेरे ही बराबरवाली सीट पर.

धीरे-धीरे बातें शुरू हुईं 
और बातों ही बातों में 
हमने तय कर लिया 
कि हम एक ही स्टेशन पर उतरेंगें,
वह स्टेशन कोई भी क्यों न हो.

पर छोटे-से सफ़र में 
न जाने क्या गड़बड़ हुई, 
तुमने कह दिया
कि ऐसे किसी भी स्टेशन पर 
तुम उतर जाओगी,
जहाँ मैं नहीं उतरूंगा.

मैंने भी सोच लिया है 
कि ऐसे किसी भी स्टेशन पर 
मैं उतर जाऊंगा,
जहाँ तुम उतरोगी.

क्या कोई ऐसा भी स्टेशन है,
जहाँ से ट्रेन 
न आगे जाती हो,
न पीछे लौटती हो?

अगर है, तो आओ हम दोनों 
उसी स्टेशन पर उतर जाएं.

शनिवार, 2 दिसंबर 2017

२८७. आखिरी खनक

अभी-अभी सुनी है मैंने 
तुम्हारे गेहुएं पांवों में बंधी 
पायल की आखिरी खनक.

काश कि मैं जवान होता,
कान थोड़े ठीक होते,
तो कुछ देर तक सुन पाता
तुम्हारी पायल की खनक.

मैंने महसूस किया है फ़र्क 
तुम्हारे आनेवाले पांवों और 
लौटनेवाले पांवों में बंधी 
पायल की खनक में.

लौटनेवाले पांवों में बंधी 
पायल की खनक ऐसी,
जैसे कोई बीमार 
अस्पताल के बिस्तर पर पड़ा 
अंतिम सांसें ले रहा हो.

न जाने कब टूट जाय 
उसकी धीमी पड़ती सांस,
न जाने कब सुन जाय 
पायल की आखिरी खनक.