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शनिवार, 26 अगस्त 2017

२७४. मसालेदार कविता

कविता लिखो,
तो सादी मत लिखना,
कौन पसंद करता है आजकल 
सादी कविता ?
तेज़ मसाले डालना उसमें,
मिर्च डालो,
तो तीखी डालना,
ऐसी कि पाठक पढ़े,
तो मुंह जल जाय उसका,
आंसू निकल जायँ उसके,
पता चल जाय उसे 
कि किसी कवि से पाला पड़ा था.

कविता लिखो,
तो रेसिपी ऐसी रखना 
कि समझ ही न पाए पाठक 
कि वह बनी कैसे है.

ऐसी कविता लिख सके तुम,
तो डर जाएगा पढ़नेवाला,
वाह-वाह कर उठेगा
और अगर सादी कविता लिखी,
उसकी समझ में आ गई,
तो हो सकता है 
वह तुम्हें कवि मानने से ही 
इन्कार कर दे.  


शनिवार, 19 अगस्त 2017

२७३. अस्तित्व


रेलगाड़ी की दो पटरियां 
एक दूसरे का साथ देती 
चलती चली जाती हैं 
एक ही मंजिल की ओर.

सर्दी-गर्मी,धूप-बरसात 
सब साथ-साथ सहती हैं,
फिर भी बनाए रखती हैं
अपना अलग अस्तित्व.

रेलगाड़ी की पटरियां सिखाती हैं 
कि दो लोग कितने ही क़रीब क्यों न हो,
उन्हें इतना क़रीब नहीं होना चाहिए 
कि अपना अस्तित्व ही खो दें.

शनिवार, 12 अगस्त 2017

२७२. जीवन

बूँद-दर-बूँद रिस रहा जीवन,
ऐसे कि ख़ुद को ख़बर नहीं,
वैसे तो बहुत कुछ बचा है रिसने को,
कौन जाने, ख़ाली हो जाय अभी-अभी.

अभी देखा तो ख़ुशी से पागल था वो,
अभी आँखों में है नमी उसकी,
पल-भर में सब बदल गया ऐसे,
एक पल में छिपे हों जैसे बरस कई.

अभी तो जीवन से भरा था वो,
नज़र फिरी कि सब कुछ ख़त्म हुआ,
जादू कहें इसे या नाटक कहें कोई,
जो सच लगता है, सच है ही नहीं.

शुक्रवार, 4 अगस्त 2017

२७१.मुसाफ़िर से

मुसाफ़िर,
तुम समझ रहे हो न
कि यह रेलगाड़ी है,
जो चल रही है,
तुम ख़ुद नहीं चल रहे.

मुसाफ़िर,
यह रेलगाड़ी है,
जो तुम्हें मंजिल तक पहुंचाएगी,
अगर यह रुक जाय,
तो शायद तुम पहुँच भी न पाओ 
अपने बूते.

मुसाफ़िर,
किसी ने तुम्हें स्टेशन पहुंचाया,
कोई तुम्हें स्टेशन से ले जाएगा,
तुम्हें पता भी नहीं चलेगा,
पर तुम्हें पग-पग पर 
किसी की ज़रूरत होगी.

मुसाफ़िर,
कभी-कभी हमें लगता है 
कि हम अकेले चल रहे हैं,
सब कुछ ख़ुद कर रहे हैं,
पर यह सच नहीं होता.

मुसाफ़िर,
वैसे तो तुम अकेले चल रहे हो,
हिम्मत का काम कर रहे हो,
पर यह न समझ लेना 
कि तुम्हारे अकेले चलने में 
किसी का योगदान नहीं है.