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बुधवार, 31 जुलाई 2019

३७१. लार

Silkworm, Cocoon, Insect, Silk, Nature

रेशम का कीड़ा 
अपनी लार से 
ककून बनाता है,
उसी के कारण 
उबाला जाता है,
मारा जाता है.

आदमी रेशम के कीड़े से 
ज़्यादा लार टपकाता है,
पर न जाने क्यों 
मरते हमेशा दूसरे ही हैं,
वह ख़ुद साफ़ बच जाता है.

शुक्रवार, 26 जुलाई 2019

३७०. बारिश से

Air, Sky, Cloud, Background, Clouds

बारिश,
क्यों आई हो यहाँ,
चली जाओ.

कहाँ थी तुम,
जब निर्दयी सूरज
जला रहा था हमें,
जब फट रही थी ज़मीन
प्यास के मारे,
सूख रही थीं
नदियाँ,बावड़ियाँ,
ख़ाली हो रहे थे
तालाब,कुएँ ?

तब तो तांडव कर रही थी तुम
बिहार,आसाम में,
पानी फेर रही थी
लुटे-पिटे लोगों की
बची-खुची उम्मीदों पर.

बारिश,
सब कुछ डुबो कर भी
जी नहीं भरा तुम्हारा?
नरभक्षी कैसे हो गई तुम,
कैसी भूख है तुम्हारी?
क्या पानी से प्यास नहीं बुझी
कि खून भी पीने लगी तुम?

बारिश,
क्यों आई हो यहाँ,
चली जाओ,
तुम्हारे मचाए हाहाकार के बीच
अब ये टिप-टिप,टापुर-टुपुर
मुझे अच्छी नहीं लगती.

रविवार, 21 जुलाई 2019

३६९. जूते

Shoes, Men, Footwear, Fashion

नया जूता थोड़ा-बहुत काटता है,
पर लगातार पहनते रहो,
तो ठीक हो जाता है,
छोड़ दो, तो और अकड़ जाता है.

कुछ जूते बहुत ज़िद्दी होते हैं,
कई दिनों तक काटना नहीं छोड़ते,
पर आखिर में ठीक हो जाते हैं,
बस थोड़ी तकलीफ़ सहना,
थोड़ा सब्र करना पड़ता है.

कुछ लोग भी जूतों की तरह होते हैं,
काटने से बाज नहीं आते,
उनसे वैसे ही निपटना पड़ता है,
जैसे जूतों से निपटा जाता है.

बुधवार, 17 जुलाई 2019

३६८. बारिश


Geranium, Cranes-Bill, Pelargonium

आज बहुत तेज़ बरसा पानी,
धूल-सने पत्ते जमकर नहाए,
गहरी भीग गईं सूखी डालियाँ.

तृप्त हो गईं प्यासी जड़ें,
कलियों ने चुपके से मुंह खोल
गटक लिया थोड़ा-सा पानी.

बारिश रुकने के बाद देर तक
फूलों ने पंखुड़ियों पर थामे रखीं
पानी की दस-बीस बूँदें,
जैसे कि प्यास बुझ गई हो,
पर मन अभी भरा नहीं हो.

शुक्रवार, 12 जुलाई 2019

३६७. भुतहा इमारत

इमारत बहुत उदास है.

न किसी बच्चे की हंसी,
न पायल की छमछम,
न किसी बूढ़े की खांसी,
न कोई कूकर की सिटी,
न बर्तनों की खड़खड़ाहट.

न कोई जन्मा यहाँ,
न कोई मरा,
न कोई कराहा,
न कोई सिसका.

कुछ भी नहीं हुआ यहाँ,
जब से यह भुतहा कहलाई.

इमारत अकेली है,
बहुत उदास है,
सोचती है,
'काश,कोई और नहीं,
तो भूत ही बसते मुझमें.' 



शुक्रवार, 5 जुलाई 2019

३६६. राजधानी का दुःख

मैं राजधानी ट्रेन हूँ,
कहने को राजधानी हूँ,
पर बहुत दुखी हूँ.

मैं गाँव-देहात से होकर 
गुज़रती ज़रूर हूँ,
पर वहां रुकती नहीं,
वहां के लोगों से 
कभी मिलती नहीं,
बस धड़धड़ाकर
आगे निकल जाती हूँ,
जैसे कि मैंने उन्हें 
देखा ही नहीं.

चलती रहती हूँ मैं,
अपने लिए सोचने का 
समय ही कहाँ है,
बड़े स्टेशन आते हैं,
तो ज़रा-सी रुक जाती हूँ,
फिर चल पड़ती हूँ,
जैसे बेमन से रुकी थी.

लोग न जाने क्या समझते हैं,
पर सच में मेरी चलती,
तो मैं राजधानी नहीं,
पैसेंजर होना पसंद करती.