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शनिवार, 30 जुलाई 2016

२२३. ठूंठ



मुझे बहुत भाते हैं वे पेड़,
जिन पर पत्ते, फूल, फल
कुछ भी नहीं होते,
जो योगी की तरह
चुपचाप खड़े होते हैं -
मौसम का उत्पात झेलते.

इन्हें देखकर मुझे
दया नहीं आती,
क्योंकि मैं जानता हूँ
कि ये पेड़,
जो मृतप्राय लगते हैं,
बड़े जीवट वाले होते हैं,
बहुत धीरज होता है इनमें.

जब फलों-फूलों से लदे
आसपास के हरे-भरे पेड़
इन्हें दया की नज़र से देखते हैं,
तो ये मन-ही-मन मुस्कराते हैं.

ये अच्छी तरह जानते हैं कि
जल्दी ही ये भी हरे-भरे होंगे,
अभी इनकी जड़ें सूखी नहीं हैं,
अभी बहुत जीवन शेष है उनमें.

शुक्रवार, 22 जुलाई 2016

२२२. आँखें

वे नहीं चाहते 
कि औरतों के आँखें हों.

आँखें होंगी,
तो वे देख सकेंगी,
जान सकेंगी
कि क्या-क्या हो रहा है 
उनके ख़िलाफ़,
उन्हीं के सामने.

ज़बान से कुछ न बोलें,
तो भी हो सकता है 
कि आँखें दिखा दें,
या हो सकता है 
कि उनकी आँखों में 
झलक जाय 
उनकी नफ़रत.

कौन जाने 
कि चुपचाप देखते-देखते 
कभी उनकी ज़बान 
खुल ही जाय
या कुछ ऐसा हो जाय,
जिसकी कभी किसी ने 
कल्पना भी न की हो. 

वे नहीं चाहते 
कि उनकी दुनिया में,
जहाँ वे खुश हैं,
सुरक्षित हैं,
कोई हलचल हो,
इसलिए वे इस बात के ख़िलाफ़ हैं 
कि औरतों के भी आँखें हों.

बुधवार, 13 जुलाई 2016

२२१. उत्सव


आज सुबह बारिश हुई -
मूसलाधार बारिश,
भर गए सब खड्डे-नाले,
घुस गया पानी घरों में,
छिप गईं सड़कें,पगडंडियाँ,
रुक गया जैसे जीवन.

जब शाम हुई,
अस्त होते-होते मुस्करा उठा सूरज,
पानी की चादर पर बिखर गई 
ढेर सारी गुलाल
या गुलाब की पंखुडियां,
धरती-आकाश रंग गए 
एक ही रंग में.

कितनी भी कोशिश कर ले बारिश,
आख़िर मुस्करा ही उठता है सूरज,
कितना ही हो जाए विध्वंस,
रुकता कहाँ है उत्सव ?

शनिवार, 2 जुलाई 2016

२२०. अपराध-बोध

अब नहीं रहा वह पढ़ने का सुख,
किताबों की सोहबत में जागने का सुख,
पढ़ते-पढ़ते ख़ुद को भूल जाना,
कभी हँसना,कभी रोना, कभी सहम जाना,
कभी पीठ के बल, तो कभी पेट के बल,
हथेलियों में किताब थामे लेट जाना,
आँख लगते ही किसी बच्चे की तरह 
किताब का पेट पर चुपचाप सो जाना.

अब मैं हूँ, मेरा लैपटॉप, मेरा मोबाइल है,
देर रात तक जागता हूँ अब भी,
घूमता हूँ इन्टरनेट की दुनिया में,
पढ़ता हूँ कुछ काम की बातें, कुछ बकवास,
फिर सो जाता हूँ थककर
एक अजीब से अपराध-बोध के साथ.

अगली रात फिर वही सिलसिला,
फिर वही लक्ष्यहीनता,
आख़िर में फिर थककर सो जाना,
फिर वही अपराध-बोध.

आजकल मैं अकसर सोचता हूँ
कि अच्छी-बुरी आदत, जो पड़ जाती है,
उसे बदलना इतना मुश्किल क्यों होता है.