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शुक्रवार, 29 मार्च 2013

७४. चिड़िया से


चिड़िया, जब तुम आसमान में उड़ती हो,
तुम्हारे मन में क्या चल रहा होता है?

तुम मस्ती में उड़ी चली जाती हो,
या कि सोचती हो, कहीं बादलों में फंस न जाओ,
कि सूरज के ताप से झुलस न जाओ,
कि कहीं तुम्हारे पंख जवाब न दे दें?

तुम्हें उन चूज़ों की चिंता तो नहीं सताती,
जो घोंसले में तुम्हारा इंतज़ार कर रहे होते हैं,
कि उनके लिए दानों का इंतज़ाम होगा या नहीं,
कि कहीं तूफ़ान में घोंसला गिर तो नहीं जाएगा?

उड़ते समय तुम्हारे मन में डर तो नहीं होता
कि लौटने पर तुम्हारे बच्चे सलामत मिलेंगे या नहीं,
कि तुम खुद किसी बहेलिए के निशाने पर तो नहीं,
जो तुम्हारी ताक में कहीं छिपा बैठा हो?

उड़ते समय तुम्हारे मन में क्या चल रहा होता है,
चिड़िया, मौत से पहले भी क्या तुम मरती हो?

शनिवार, 23 मार्च 2013

७३. कविता की दस्तक

वह जो कविता कल दिखी थी,
अचानक गायब हो गई.

बहुत सुन्दर, बहुत अच्छी थी,
पर मेरा ध्यान ज़रा क्या भटका
कि वह रूठकर चली गई,
फिर मिली ही नहीं.

न जाने कहाँ चली गई,
बहुत परेशान रहा मैं,
बहुत खोजा मैंने,
पर नतीजा शून्य,
अब तो उसके मिलने की
उम्मीद भी नहीं रही.

सोचता हूँ, अब कभी कोई कविता आई,
तो सब कुछ छोड़कर साथ हो लूँगा,
खोने का दंश और नहीं सहूंगा,
बहुत कुछ खोया है मैंने,
तब जाकर सीखा है
कि कभी कोई कविता दस्तक दे,
तो दरवाज़ा तुरंत खोल देना चाहिए.

शनिवार, 16 मार्च 2013

७२.प्रत्युत्तर






बदनाम मत करो मुझे,
जानो,समझो,मुझे पहचानो.

मैं हर साल आता हूँ 
ताकि पुराने दकियानूसी पत्ते 
छोड़ दें अपनी हठधर्मिता,
समझ लें कि उनका काम पूरा हुआ 
और राह दें नए कोमल पत्तों को 
जिनके कन्धों पर सवार होकर 
एक नए दौर को आना है.

मुझे विध्वंसक मत कहो,
ध्यान से देखो मुझे,
दरअसल सर्जक हूँ मैं,
विध्वंस में ही छिपा है सृजन,
जब तक अंत नहीं होता 
शुरुआत भी नहीं होती.

मैं ही तैयार करता हूँ ज़मीन,
मैं ही डालता हूँ बुनियाद 
आनेवाले सुनहरे कल की,
ज़रा सोचो कि मैं नहीं होता 
तो वसंत कैसे आता?

शनिवार, 9 मार्च 2013

७१.पतझड़

पतझड़, बड़े बेशर्म हो तुम.

हर साल चले आते हो मुंह उठाए,
पत्तों को पेड़ों से गिराने,
कलियों-फूलों को मिटाने,
परिंदों से उनके घोंसले छीनने,
बगिया को तहस-नहस करने.

पतझड़, तुम्हें क्यों नहीं सुहाती 
पत्तों की हरितिमा,
कलियों का सौंदर्य,
फूलों की खुशबू ?
चहचहाते परिंदों से 
क्या दुश्मनी है तुम्हारी?
क्या मिलता है तुम्हें 
पेड़ों को ठूंठ बनाकर?
हँसता-खिलखिलाता जीवन 
तुम्हें क्यों रास नहीं आता?

हर बार वसंत आता है,
खदेड़ भगाता है तुम्हें,
फिर निकल आते हैं हरे-हरे पत्ते,
फिर खिल जाती हैं कलियाँ,
फिर मुस्करा उठते हैं फूल,
फिर चहचहाने लगते हैं परिंदे.

पर तुम बाज़ नहीं आते,
घात लगाए बैठे रहते हो,
मौका मिलते ही फिर से 
बोल देते हो हमला.

पतझड़, इतने बेशर्म 
इतने निष्ठुर मत बनो,
कभी तो उस उत्सव का हिस्सा बनो,
जिसका विध्वंस करने 
तुम हर साल चले आते हो.

शनिवार, 2 मार्च 2013

७०.अनलिखा-अनकहा

जो लिख दिया गया,जो कह दिया गया,
वह लेखों में,स्मृतियों में है.

फिर भी बहुत कुछ है,जो अनलिखा है,
बहुत कुछ है,जो अनकहा है.
अनलिखे को तलाश है लिखनेवाले की 
और अनकहे को कहनेवाले की.

कभी न कभी अनलिखे को लिखनेवाला, 
अनकहे को कहनेवाला मिल ही जायेगा.
जो अनलिखा है,लिख दिया जाएगा,
जो अनकहा है,कह दिया जाएगा.

जब सब कुछ लिख दिया जाएगा,
तब भी कुछ नया होगा,जो अनलिखा होगा,
जब सब कुछ कह दिया जाएगा,
तब भी कुछ नया होगा, जो अनकहा होगा.
ऐसा कभी नहीं होगा 
कि कुछ भी अनलिखा न रहे,
कुछ भी अनकहा न रहे.

अनलिखे को लिखनेवाले,
लिखनेवालों को अनलिखा,
अनकहे को कहनेवाले,
कहनेवालों को अनकहा,
कभी निराश नहीं करते.