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शुक्रवार, 20 जून 2014

१३०. आजकल

आजकल मैं कभी-कभी 
तुम्हारे बिस्तर पर लेट जाता हूँ,
मुझे लगता है, मेरी बगल में, 
मेरे साथ, तुम भी लेटे हो, 
चुपचाप...

मैं जब तुम्हारे कमरे में जाता हूँ,
मुझे तुम्हारी सांसें सुनाई देती हैं,
तुम्हारे पसंदीदा सीरियल देखता हूँ,
तो तुम्हारी हंसी सुनाई देती है.

आजकल मैं कभी-कभी 
उन पगडंडियों पर निकल पड़ता हूँ,
जहाँ तुम चला करते थे,
मुझे लगता है,
तुम मेरे साथ चल रहे हो,
बस कुछ पूछने ही वाले हो 
और मैं उत्तर देने को बेताब.

आजकल कभी-कभी 
मैं तुम्हारी पुरानी कमीज़ पहन लेता हूँ,
मुझे लगता है,
तुम मेरे बहुत करीब हो,
बिल्कुल मुझसे चिपके हुए.

अब वह पुरानी कमीज़ 
जगह-जगह से फट गई है,
उसके रंग भी उड़ गए हैं,
रफ़ू के लायक नहीं रही वह,
अब उसे पहनना संभव नहीं.

तुम परदेस क्या गए, 
वहीँ के हो गए,
सालों बीत गए तुम्हें देखे,
अब तो चले आओ.

शुक्रवार, 13 जून 2014

१२९. सूरज



पेड़ों के पीछे से झांकता सूरज
कितना अच्छा लगता है माँ !

देखो, पत्ते हिल रहे हैं,
जैसे रोक लेना चाहते हों 
सूरज की हर किरण,
पर सूरज है कि
पत्तों से छनकर
ज़मीन को छू ही लेता है.

ठीक ही तो है,
भला क्यों मिले सूरज 
सिर्फ़ किसी एक को,
हर किसी के हिस्से में 
उसकी किरण होनी चाहिए.

बस एक बात है माँ,
जो मुझे समझ नहीं आई -
आखिर एक ही सूरज 
इतने पेड़ों के पीछे से 
कैसे झाँक लेता है ?