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शुक्रवार, 29 मई 2015

१७१. अगर तू है

भगवान, मैंने सुना है, तू है,
अगर है, तो कुछ ऐसा कर दे 
कि मैं बेसहारों का सहारा,
बेघरों की छत बन जाऊं,
मैं गूंगों की ज़ुबां,
लंगड़ों की टाँगें,
अंधों की आँखें बन जाऊं.

मैं रोते बच्चों का खिलौना,
मरीज़ों की दवा बन जाऊं,
भूल चुके हैं उनके अपने जिनको,
मैं उनकी उम्मीद का दामन बन जाऊं.

तोड़ कर रख दे जो हौसला अँधेरे का,
मैं वो रौशन दिया बन जाऊं,
जीवन में जिनके पसर चुकी है रात,
मैं उनके लिए नई सुबह बन जाऊं.

ठण्ड की रातें जो गुज़ारते हैं खुले में,
मैं उनके बदन का लिहाफ़ बन जाऊं,
भीगी रहती हैं जिनकी आँखें हरदम,
मैं उनके होंठों की मुस्कान बन जाऊं.

भगवान, तू है तो कुछ ऐसा कर दे,
मैं अपने-पराए से ऊपर उठ जाऊं,
अभी जो मैं हूँ, मैं वो न रहूँ, 
ऐसा कर दे कि कुछ अलग हो जाऊं.

शुक्रवार, 22 मई 2015

१७०. बेड़ियाँ

न जाने कब से मैं 
खोल रहा हूँ बेड़ियाँ,
पर एक खोलता हूँ,
तो दूसरी लग जाती है.

तरह-तरह की बेड़ियाँ,
अनगिनत बेड़ियाँ -
कभी अहम की,
कभी पूर्वाग्रह की,
कभी स्वार्थ की,
कभी लालच की,
कभी झूठ की,
कभी घृणा की.

दरअसल ये बेड़ियाँ 
मैंने खुद ही बनाई हैं,
खुद को ही पहनाई हैं,
ये बेड़ियाँ मैं 
खुद ही खोलता हूँ 
और खुद ही लगाता हूँ.

दरअसल ये बेड़ियाँ 
अब मेरी ज़रूरत नहीं,
मेरी आदत बन गई हैं.

शुक्रवार, 15 मई 2015

१६९. पटरी पर सोनेवालों से

गहरा रही है रात,
दुबके पड़े हैं सब घरों में,
चहचहाना बंद है परिंदों का,
सो रहे हैं वे भी घोंसलों में,
सुनसान पड़ी हैं सड़कें,
दूर गली में भौंक रहा है 
कोई आवारा कुत्ता,
पर भ्रम में मत रहना,
कहीं सो न जाना.

हो सकता है,
जी-भर शराब पीकर 
निकल पड़ा हो कोई,
अपनी आलीशान कार में,
हवा की रफ़्तार से.

कोई ज़रूरी नहीं 
कि वह सड़क पर चले,
पटरी पर भी चल सकता है,
तुम्हें कुचल भी सकता है,
परिवार के साथ या अकेले,
जैसा वह चाहे.

पटरी पर सोनेवालों, उठो,
कानून का पालन करो,
क्या सुना नहीं तुमने,
जानकारों का कहना है 
कि पटरी चलने के लिए होती है,
सोने के लिए नहीं.

शुक्रवार, 8 मई 2015

१६८. तोड़े गए फूल

मत पहनाओ मुझे फूलों का हार,
मत स्वागत करो मेरा गुलदस्तों से,
मेरी शव-यात्रा को भी बख्श देना,
मत सजाना मेरा जनाज़ा फूलों से. 

उन्हें खिल लेने दो डाल पर,
जी लेने दो अपनी ज़िन्दगी,
लहलहा लेने दो हवाओं के साथ,
नहा लेने दो बारिश में,
महसूस लेने दो बदन पर 
धूप और चांदनी,
जकड़ लेने दो आलिंगन में 
ओस की बूँद,
फिर उन्हें झर जाने दो,
सूख जाने दो उन्हें,
मिट्टी में मिल जाने दो.

डाल से तोड़े गए फूल 
गुमसुम-से होते हैं,
मुझे बिल्कुल अच्छे नहीं लगते,
ऐसे फूल मुझे काँटों से लगते हैं
और उन्हीं की तरह चुभते हैं.

शनिवार, 2 मई 2015

१६७. द्रोण से

द्रोण, एकलव्य से गुरु-दक्षिणा मांगते
क्या तुम्हें शर्म नहीं आई ?
और दक्षिणा भी क्या मांगी तुमने,
दाहिने हाथ का अंगूठा!
तुम्हारी मांग में ही छिपी थी 
तुम्हारी दुर्भावना, तुम्हारी अमानवीयता.
किस हक़ से मांगी तुमने गुरु-दक्षिणा ?
एकलव्य के लिए तुमने किया ही क्या था?

द्रोण, तुमने जो पाप किया,
उसका फल आखिर तुम्हें मिल ही गया,
महाभारत के युद्ध में तुम्हें 
अपने प्रिय शिष्य से लड़ना पड़ा,
उसी अर्जुन के हाथों तुम्हारा वध हुआ,
जिसे सर्वश्रेष्ठ बनाने के लिए 
तुमने एक निरीह आदिवासी से 
उसका अंगूठा छीना था.