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शुक्रवार, 19 जून 2015

१७४. गौरैया


खुली खिड़की के पल्ले पर 
आज फिर आ बैठी है गौरैया,
चूं-चूं , चीं-चीं से 
उठा रखा है घर सिर पर.

गर्म हवाएं घुस रही हैं,
झुलस रहा है कमरा,
पर खुली रहने दो खिड़की,
खामोश रहने दो ए.सी.  को,
कहीं उड़ न जाय 
पल्ले पर बैठी गौरैय्या.

अबके जो उड़ी
तो शायद फिर न सुने 
उसकी चूं-चूं , चीं-चीं ,
अबके जो उड़ी
तो शायद फिर कभी 
दिखाई न दे गौरैय्या.

शनिवार, 13 जून 2015

१७३. छलनी


मुझमें कुछ डालो,
तो ध्यान रखना,
मैं सब कुछ अपने में 
समेटकर नहीं रखती.

ऐसा नहीं है 
कि जो मैं रख लेती हूँ,
वही अच्छा होता है,
कभी-कभी जो अच्छा होता है,
उसे मैं निकाल भी देती हूँ.

जो मैं निकाल देती हूँ,
उसे ध्यान से देख लेना,
हो सकता है, वही अच्छा हो,
उसे फेंक मत देना
और जो मैं रख लेती हूँ,
उसे भी देख लेना,
हो सकता है कि कुछ ऐसा हो,
जो बिल्कुल बेकार हो.

आँख मूंदकर मुझ पर 
भरोसा मत करना,
मैं जो रख लेती हूँ,
कभी अच्छा होता है,
तो कभी बुरा,
रखने-छोड़ने के मामले में 
मैं बिलकुल तुम्हारे मन जैसी हूँ.

शनिवार, 6 जून 2015

१७२. पैसेंजर ट्रेन


मुझे पसंद है पैसेंजर ट्रेन,
धीरे-धीरे चलती है,
हर स्टेशन पर रूकती है,
हर किसी के लिए
दरवाज़े खुले रखती है.

यह एक्सप्रेस ट्रेन नहीं 

कि छोटे स्टेशनों को देखकर 
अपनी रफ़्तार बढ़ा दे,
प्लेटफार्म पर खड़े यात्रियों का 
मुंह चिढ़ाती हुई 
सर्र से निकल जाय.

पैसेंजर ट्रेन जल्दी में नहीं होती,

मुझे योगी-सी लगती है,
कोई भेदभाव नहीं करती,
मुझे अपनी-सी लगती है,
नहीं नोचती ज़ेब
कामगारों-मज़दूरों की,
सबका स्वागत करती है,
सबको जगह देती है.

मुझे पैसेंजर ट्रेन पसंद है,

मैं जब-जब इसे देखता हूँ,
मुझे महसूस होता है 
कि इसमें इंसानियत बहुत है.