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शनिवार, 24 जनवरी 2015

१५५. कुत्ते



कुत्ते वही अच्छे लगते हैं,
जो दुम हिलाते हैं,
विदेशी नस्ल के कुत्ते दुम हिलाएं,
तो और भी अच्छे लगते हैं. 
ऐसे कुत्तों पर बहुत प्यार आता है,
उन्हें सहलाने का मन करता है,
उनके गले में रस्सी डालकर 
उन्हें टहलाने का मन करता है. 

जो कुत्ते भौंकते हैं,
उनसे डर लगता है 
कि कहीं काट न लें,
उनसे छुटकारा ही अच्छा है,
वे सड़कों पर ही ठीक होते हैं. 

दरअसल हम चाहते हैं 
कि कुत्ते देखने में तो कुत्तों की तरह हों,
पर उनका व्यवहार इंसानों जैसा हो. 

शुक्रवार, 16 जनवरी 2015

१५४. परिंदे


बेचैन इधर-उधर क्यों फिरता है परिंदे,
क्या तेरा भी छिन गया घर-बार परिंदे?

अब कहाँ वो पेड़,वो डाली,वो पत्ते,
जा किसी इमारत में बना घोंसला परिंदे।

सौ बार सोचा कर चहचहाने से पहले,
गणतंत्र है, पर बोलना मना है परिंदे।

चुगने की जल्दी न दिखाया कर इतनी,
बहेलियों के पास सारा दाना है परिंदे. 

ध्यान से देख,उनके हाथों में हैं पिंजरे,
तू उनके खेलने का सामान है परिंदे।

कौड़ियों में बिकती है जहाँ जान इंसानों की,
क्या सोच के आया उस बस्ती में परिंदे?

पंख है तो तमन्ना होगी आकाश को छूने की,
पर उन्हें नहीं पसंद किसी का उड़ना परिंदे. 

शुक्रवार, 9 जनवरी 2015

१५३. सिलेबस बदलने का समय

अब सिलेबस बदल दो.

वर्णमाला,पहाड़े ज़रूरी नहीं हैं,
बाद में भी सीखे जा सकते हैं,
पहले उन्हें वह सब सिखाओ,
जो सीखना ज़रूरी है.

उन्हें सिखाओ
कि कोई बम उछाले
तो कैसे लपका जाता है,
खिड़की से बाहर कैसे फेंका जाता है,
कोई गोलियां चलाए,
तो कहाँ छिपा जाता है,
गोली लग जाए,
तो कैसे चुप रहा जाता है,
मरने का अभिनय किया जाता है.

परीक्षा की तैयारी बाद में भी हो जाएगी,
अभी तो ज़रूरी है
कि वे स्कूल के लिए निकलें,
तो न लौटने के लिए तैयार रहें,
यदि बच जाएं,तो साथियों की 
चीखें सहने को तैयार रहें.

पढ़ने की आदत ज़रूरी नहीं,
उन्हें आदत होनी चाहिए
कि शरीर के चिथड़े देख सकें,
खून के फव्वारे देख सकें.

अब सिलेबस बदलने के दिन आ गए,
अब यह सीखने के दिन आ गए
कि कम उम्र में कैसे मरा जाता है.

शुक्रवार, 2 जनवरी 2015

१५२. कोहरे में गाँव


कोहरे में अपना गाँव 
मुझे बहुत अच्छा लगता है. 

न टूटी सड़कें दिखती हैं,
न सूखे नल, 
न सूने पनघट,
न वीरान खेत, 
न खाली खलिहान।

बरगद के नीचे का 
वह चबूतरा भी नहीं दिखता,
जहाँ कभी जमघट लगता था,
हुक्के गुड़गुड़ाए जाते थे.

न नंगे बच्चे दिखते हैं,
न नशे में धुत्त युवक,
न सहमी-सहमी सी लड़कियाँ,
न वो पेड़ जहाँ पिछले दिनों 
दो प्रेमी लटकाए गए थे. 

नहीं दिखती मुझे 
माँ की झुकी कमर,
पिता के चेहरे की झुर्रियाँ,
उनकी आँखों की उदासी,
उनका अकेलापन. 

कोहरा छँटते ही मैं 
शहर के लिए निकल पड़ता हूँ,
कोहरे में अपना गाँव 
मुझे बहुत अच्छा लगता है.