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मंगलवार, 27 अक्तूबर 2020

४९७. दुर्गा से



दुर्गा,

इस बार मैंने देखा,

तुम ज़रा उदास थी,

सिंह,जिस पर तुम सवार थी,

थोड़ा सुस्त-सा था,

शस्त्र जो तुमने थामे थे,

थोड़े कुंद-से थे,

महिषासुर के चेहरे पर 

थोड़ी निश्चिन्तता थी.


दुर्गा,

तुम्हें विदा करते हुए 

मैंने महसूस किया 

कि इस बार यहाँ आकर 

तुम्हें अच्छा नहीं लगा.


सोमवार, 26 अक्तूबर 2020

४९६. रावण का क़द


वे हर साल दशहरे पर 

रावण का पुतला जलाते हैं,

पर अगले साल उन्हें

बड़े क़द का रावण चाहिए,

वे ख़ुद नहीं जानते 

कि वे चाहते क्या हैं,

रावण को जलाना

या उसका क़द बढ़ाना.

***

हर साल जुटते हैं 

लाखों-करोड़ों लोग

रावण का पुतला जलाने,

पर न जाने क्यों 

अगले साल बढ़ जाता है 

रावण का क़द,

मैंने कभी बढ़ते नहीं देखा

जलानेवालों का क़द.

***

दस सिर हैं रावण के,

क़द भी बहुत बड़ा है,

पर डरो मत,

एक चिंगारी की देर है,

धधक उठेगा रावण,

जलकर राख हो जाएगा 

बस ज़रा-सी देर में.

शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2020

४९५. बच न जाय रावण



इस बार दुर्गापूजा फीकी है,

पंडालों में भीड़ कम है,

संगीत थोड़ा धीमा है,

रौशनी कुछ मद्धिम है,

लोग ज़रा सहमे से हैं,

देवी उदास-सी दिखती है.


दूर मैदान में खड़ा 

अट्टहास कर रहा है रावण,

मुझे डर है 

कि इस बार दशहरे में 

कहीं वह बच न जाय.

बुधवार, 21 अक्तूबर 2020

४९४. रावण की नाभि का अमृत



जब सोख लिया था 

रावण की नाभि का अमृत 

राम के अग्नि-वाण ने,

तभी मरा था रावण.


सदियाँ बीत गईं,

पर लगता है,

पूरा नहीं किया था काम

राम के अग्नि-वाण ने,

बच गया था 

रावण की नाभि में 

थोड़ा-सा अमृत.


तभी तो जीवित है 

अब तक रावण,

लौट आता है बार-बार 

किसी-न-किसी रूप में,

जलता है हर दशहरे में,

पर अट्टहास करता 

फिर आ धमकता है 

अगले दशहरे में.


क्या कोई राम आएगा,

जो मार दे रावण को

हमेशा के लिए,

क्या कोई ऐसा तीर होगा,

जो सोख सके 

रावण की नाभि का 

बचा-खुचा अमृत? 


सोमवार, 19 अक्तूबर 2020

४९३. ज़िन्दा



शांत पड़ा हूँ मैं बड़ी देर से,

यह चुप्पी अब खलने लगी है,

मुझ पर एक उपकार करो,

कहीं से कोई पत्थर उठाओ,

खींचकर मारो मेरी ओर,

हलचल मचा दो मुझमें,

चोट लगे तो लग जाय ,

पर महसूस तो हो मुझे 

कि मैं अभी ज़िन्दा हूँ.

शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2020

४९२. तूफ़ान में दूब



उस दिन तेज़ तूफ़ान आया,

ज़ोर की आंधियां चलीं,

धुआंधार बारिश हुई,

धराशाई हो गए विशालकाय पेड़,

टेढ़े-मेढ़े हो गए बिजली के खम्भे.

गिर गईं बहुत-सी झोपड़ियाँ,

ढह गए कच्चे मकान,

पक्के मकानों ने भी सहा 

ख़ूब सारा नुकसान.


इस भीषण तबाही में भी 

बच गई सही-सलामत 

धरती की गोद में छिपी 

नन्ही, कमज़ोर-सी दूब.

बुधवार, 14 अक्तूबर 2020

४९१. कविता




जब भी बैठता हूँ मैं कविता लिखने,

न जाने क्यों,

मेरे शब्द अनियंत्रित हो जाते हैं,

कोमल शब्दों की जगह 

काग़ज़ पर बिखरने लगते हैं 

आग उगलते शब्द,

काँटों से चुभने लगते हैं उन्हें,

जो मेरी कविताएँ पढ़ते हैं.


उन्हें लगता है 

कि मैं वैसी कविताएँ क्यों नहीं लिखता,

जो राजाओं की तारीफ़ में लिखी जाती थीं,

जिन्हें कवि दरबार में सुनाते थे,

वाहवाही और ईनाम पाते थे.


मैं चाहता तो हूँ,

पर लिख नहीं पाता ऐसी कविताएँ,

अवश हो जाता हूँ मैं,

मेरी लेखनी मुझे अनसुना कर 

एक अलग ही रास्ते पर चल पड़ती है,

उसे दुनियादारी की कोई समझ नहीं है.

 


शनिवार, 10 अक्तूबर 2020

४९०. कैसे लोग हो तुम?



कैसे लोग हो तुम,

जो लड़ते ही रहते हो,

कभी किसी छोटी,

तो कभी बड़ी बात पर,

कभी इस बात पर,

तो कभी उस बात पर.


अगर एक बार लड़ाई 

शुरू हो जाय,

तो उसे बढ़ाते ही रहते हो,

ख़त्म ही नहीं करते.


तुम ख़ुद को बड़ा कहते हो,

पर तुमसे अच्छे तो बच्चे हैं,

जो अगर आज लड़ते हैं,

तो कल साथ खेलने लगते हैं.

मंगलवार, 6 अक्तूबर 2020

४८९. शिव से




शिव,

तुम अनाचार देख रहे हो न,

कौन किसके गले में 

सांप डाल रहा है,

ख़ुद अमृत पीकर 

दूसरों को विषपान करा रहा है,

कौन ज़िम्मेदारियों से मुक्त होकर 

कर्तव्य की गंगा का बोझ 

दूसरों के सिर डाल रहा है.


कौन है,

जो ख़ुद रह रहा है 

आलीशान इमारतों में 

और दूसरों को भेज रहा है 

हिमालय के एकांत में,

ख़ुद भोग रहा है सारे सुख 

और दूसरों को रख रहा है 

नंग-धडंग....


शिव,

कब खोलोगे तुम तीसरा नेत्र,

कब बजेगा तुम्हारा डमरू, 

कब चलेगा तुम्हारा त्रिशूल,

शिव, कब करोगे तुम तांडव?

शनिवार, 3 अक्तूबर 2020

४८८. उन दिनों की वापसी

सुनो,

मुझे वे दिन याद आते हैं,

जब सड़कों पर मिलने के 

ढेर सारे मौक़े हुआ करते थे,

पर हम कतराकर निकल जाते थे.


तब किसी को गले लगाना 

कोई डर की बात नहीं थी,

हम फिर भी बचते रहते थे,

पर अब सालता है दर्द 

इन मौक़ों के खो जाने का.


कभी तो कोरोना हारेगा,

कभी तो वे मौक़े फिर आएँगे,

पर क्या हम ख़ुद को बदल पाएंगे?

क्या हम किसी को गले लगा पाएंगे?