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शनिवार, 14 फ़रवरी 2015

१५७. गांठें

बिना वज़ह कभी-कभी लगती हैं गांठें,
बिना कोशिश कभी-कभी खुलती हैं गाँठें. 

तेरी भी हो सकती है, मेरी भी हो सकती है,
ग़लती चाहे जिसकी हो,चुभती हैं गाँठें. 

क्या कुछ नहीं है इस मुल्क में लेकिन,
रस्सी नहीं,पीछे खींचती हैं गाँठें. 

चंद रोज़ रोक दें तरक्क़ी के सब काम,
पहले मिल के खोल लें बरसों की गाँठें. 

सदियों पुरानी अभी खुली नहीं फिर भी,
लगाए चले जा रहे हैं नित नई गाँठें. 

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2015

१५६.पतंग


मेरी डोर उसके हाथों में है,
वह जब-जैसे चाहता है,
मुझे नचाता है.

कभी मुझे ढीला छोड़ देता है,
कभी अपनी और खींच लेता है,
कभी-कभी तो दूर से ही 
मुझे चक्कर खिला देता है,
जैसे महसूस कराना चाहता हो 
कि मैं उसके नियंत्रण में हूँ. 

मैं बरसात,गर्मी,सर्दी,
तेज़ हवाएं - सब कुछ 
अकेले बर्दाश्त करती हूँ,
वह कहीं आराम से बैठकर 
चाय की चुस्कियों के बीच 
मुझे उड़ाता रहता है. 

कभी-कभी जब मैं उससे दूर 
बादलों के बीच होती हूँ,
तो मुझे भ्रम हो जाता है 
कि मैं मुक्त हो गई हूँ,
पर वह तुरंत डोर खींच लेता है 
और कहीं कोने में पटक देता है 
ताकि अगले दिन मुझे फिर उड़ा सके.