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बुधवार, 24 जुलाई 2024

७७७. तुम याद आती हो

 


तुम याद आती हो,

जैसे आते हैं

लू के मौसम में बादल, 

जैसे आती हैं 

सावन के मौसम में फुहारें,

जैसे वसंत में आती है 

बाग़ों में ख़ुश्बू,

जैसे किसी ठूँठ पर 

बैठती है चिड़िया,

जैसे आता है 

सूखी नदी में पानी. 


तुम याद आती हो,

तो देर तक ठहरती हो, 

जैसे लम्बी उड़ान के बाद 

घोंसले में लौटते हैं परिंदे,

जैसे गहराता है अँधेरा 

सूरज डूबने के बाद. 


तुम याद आती हो,

तो रुक जाते हैं सारे काम,

तुम याद आती हो,

तो ऐसे आती हो,

जैसे आते हैं 

भूकंप के झटके. 



शनिवार, 20 जुलाई 2024

७७६.किताबें

 


किताबें, जिनसे बचपन में 

बड़ी दोस्ती हुआ करती थी मेरी,

अब अजनबी लगती हैं, 

वे तैयार हैं पढ़े जाने के लिए,

मैंने ही अनदेखी की है उनकी. 


इतना मसरूफ़ हूँ मैं दुनियादारी में 

कि उनकी ओर देखता तक नहीं,

जबकि वे अलमारी में बंद 

हर पल मुझे ताकती रहती हैं.


कभी-कभी मैं फ़ुर्सत में होता हूँ, 

पर किताबें नहीं पढता, 

यह मुझे वक़्त की बर्बादी लगता है,

बाक़ी सारे काम बेहतर लगते हैं.  


किताबें कहती हैं, 

तुमने रिश्ता नहीं निभाया,

इतना पास रखकर भी

हमें ख़ुद से इतना दूर रखा, 

कभी हमें पढ़कर तो देखो, 

तुम्हें देने के लिए 

हमारे पास कितना कुछ है.

 


रविवार, 14 जुलाई 2024

७७५. सभी टूटेंगे

 


शादी के मौसम में 

कई लोग जुड़ेंगे,

न जाने जुड़ेंगे या टूटेंगे


कुछ टूटेंगे झटके से 

जैसे टूटता है तिनका,

कुछ टूटेंगे आहिस्ता से,

जैसे टूटते हैं किनारे. 


कुछ अपने आप टूटेंगे,

कुछ टूटेंगे दबाव में,

कुछ आवाज़ के साथ टूटेंगे,

कुछ टूटेंगे चुपचाप. 


कुछ टूट तो जाएंगे,

पर अलग नहीं होंगे,

जैसे पेड़ से चिपकी हो 

अधटूटी टहनी. 


कुछ अलग तो हो जाएंगे,

पर टूटेंगे नहीं,

नए रास्ते खोजेंगे,

नई पगडंडियां बनाएंगे. 


कुछ टूटकर दुबारा जुड़ जाएंगे,

ऐसे कि पता ही न चले 

कि कभी टूटे भी थे, 

कुछ जुड़ तो जाएंगे,

पर एक दरार के साथ,

जो जीवित रखेगी 

फिर से टूटने की संभावना. 


थोड़ा-बहुत सभी टूटेंगे,

पर सबसे ज़्यादा वही टूटेंगे,

जिन्हें देखकर लगेगा 

कि ये कभी नहीं टूटेंगे. 


सोमवार, 8 जुलाई 2024

७७४. वह महिला

 


वह महिला सबसे अलग है,

कुछ कहो, तो आँसू नहीं बहाती,

न ही चुप रहती है,

बहस करती है, 

पलटकर जवाब देती है. 


वह महिला निर्भर नहीं 

किसी पुरुष पर,

उसे नहीं चाहिए 

किसी की मंज़ूरी,

नहीं चाहिए 

किसी का सहारा,

किसी का समर्थन. 


वह पहनती है 

अपनी पसंद की पोशाक,

खाती है अपनी पसंद का खाना,

सुनती है अपनी पसंद के गीत,

जाती है, जहाँ वह जाना चाहे, 

नाचती है जब उसका जी करे,

हँसती है, जब हँसना चाहे,

करती है, जो उसका मन करे. 


वह महिला जानती है, 

वह किसी से कम नहीं,

बहुत ख़तरनाक है वह महिला,

उस पर नज़र रखना ज़रूरी है. 


शुक्रवार, 28 जून 2024

७७३.प्रतिमा

 


सुनो,

जब पत्थर बरसते हैं गलियों में,

आग लगाई जाती है बस्तियों में,

जब सड़कों का रंग लाल 

और आसमान का काला हो जाता है,

जब गीत-संगीत की जगह 

गूँजते हैं ज़हरीले नारे,

बच्चों की किलकारियों की जगह 

गूँजती है उनके रोने की आवाज़. 


जब भूख, नफ़रत और डर का 

अड्डा हो जाता है मोहल्लों में,

तब तुम नुक्कड़ पर खड़े होकर 

इतना हँस कैसे लेते हो?


तुमसे तो अच्छी वह प्रतिमा है,

जो चौराहे पर खड़ी रहती है,

सब कुछ देखती रहती है,

कुछ कर नहीं पाती,

पर कम-से-कम हँसती तो नहीं है.