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रविवार, 5 जनवरी 2025

792. औरतों ने नहीं कराए युद्ध

 


जो लोग कहते हैं 

कि सारे युद्ध औरतों के कारण हुए, 

वे अपराधी हैं मानव जाति के,

जिन्होंने रचा है ऐसा इतिहास, 

वे अपराधी हैं झूठ बोलने के। 


औरतों ने नहीं कराए युद्ध,

युद्ध कराए हैं पुरुषों की वासना ने,  

उनकी महत्वाकांक्षा ने,

युद्ध कराए हैं उनकी क्रूरता ने। 


औरतों ने तो बस बलिदान दिया है,

हर युद्ध के अंत में उन्हें मिली है 

मौत या मौत से बदतर ज़िंदगी,

युद्ध की बिसात पर मोहरा बनी हैं वे। 


कोई औरत से सीखता, तो सीखता प्रेम, 

त्याग, करुणा, दूसरों के लिए जीना, 

दूर नहीं, आसपास देख लो, 

तुम्हें समझ में आ जाएगा 

कि औरत नहीं करा सकती युद्ध,

उसके बारे में इतिहास ने फैलाया है 

केवल भ्रम और झूठ। 



गुरुवार, 26 दिसंबर 2024

791.घर

 



न जाने कौन रख जाता है 

बिस्तर पर कैक्टस, 

किसी भी ओर करवट लो,

चुभते ही रहते हैं कांटे। 


खाने की मेज़ पर बैठो, 

तो पहाड़ दिखते हैं, 

बारिश खूब हुई इस साल,

पर वह हरियाली नहीं है। 


हवाएँ जो घुस आती थीं 

खिड़कियों की दरारों से,

अब ठिठक जाती हैं बाहर, 

जबकि खुले रहते हैं दरवाज़े। 


सभी तो हैं घर में,

बस एक तुम नहीं,

तो घर घर-सा नहीं लगता। 


मंगलवार, 26 नवंबर 2024

790. परदेसी से

 


आम का वह पौधा,

जो तुमने कभी रोपा था,

अब पेड़ बन गया है,

महकते बौर लगते हैं उसमें,

खट्टी कैरियाँ और मीठे फल भी। 


उसके हरे-हरे पत्ते 

हवाओं में मचलते हैं,

उसकी टहनियों पर बैठकर 

पंछी चहचहाते हैं। 


तुम भी चले आओ इस साल, 

देख लो अपना लगाया पौधा,

नहीं बनाना घोंसला, तो न सही,

थोड़ी देर शाख पर बैठ जाना,

फिर चाहो, तो उड़ जाना। 



शनिवार, 16 नवंबर 2024

789. शब्द

 


शब्दों के भी पंख होते हैं, 

वे नहीं रहते सिर्फ़ वहां,

जहां उन्हें लिखा जाता है। 


कभी वे आसमान में चले जाते हैं,

दिखते हैं, पर हाथ नहीं आते,

कभी वे अंदर पैठ जाते हैं,

साफ़-साफ़ दिखाई पड़ते हैं। 


शब्द काग़ज़ पर रहते हैं,

फिर भी उड़ जाते हैं, 

वे पंछी नहीं 

कि उड़ने के लिए 

घोंसला छोड़ना पड़े उन्हें।


बड़े भ्रमित करते हैं शब्द,

जितने बाहर होते हैं,

उतने ही अंदर भी,

जितने सामने होते हैं,

उतने ही ओझल भी, 

कभी नहीं दिखता काग़ज़ पर 

शब्दों का असली रूप। 


गुरुवार, 7 नवंबर 2024

788. हँसती हुई लड़कियाँ

 




मुझे अच्छी लगती हैं 

हँसती हुई लड़कियाँ,

पर इन दिनों वे 

थोड़ी सहमी-सहमी सी हैं।


बाहर निकलने से इन दिनों

कतराती हैं लड़कियाँ,

देर हो जाय लौटने में 

तो बढ़ा देती हैं  

अपने क़दमों की रफ़्तार।


न जाने कब कौन

टूट पड़े उन पर,

बंद घरों में भी 

सहमी-सी रहती हैं लड़कियाँ। 


सपनों में देखती हैं वे

मुखौटे लगाए चेहरे,

चिथड़े-चिथड़े कपड़े,

मोमबत्तियाँ हाथों में लिए 

जुलूस में शामिल लोग। 


मुझे अच्छी लगती हैं 

हँसती हुई लड़कियाँ,

पर अरसे से नहीं देखी मैंने  

हँसती हुई लड़की,

आपने देखी हो, तो बताइएगा,

मैं भी मिलना चाहता हूँ

ऐसी दुस्साहसी लड़की से।