कभी जूते उतारो,
नंगे पाँव चलो,
जिस धूल को तुम
रौंदते आए हो,
चिपकने दो
उसे अपने बदन से,
दूर मत भागो,
वह तुम्हारी अपनी है।
महसूस करो उसका स्पर्श,
आदत डाल लो उसकी,
भूलो नहीं
कि यह धूल ही है,
जिससे आख़िर में
तुम्हें मिलना है।
कभी जूते उतारो,
नंगे पाँव चलो,
जिस धूल को तुम
रौंदते आए हो,
चिपकने दो
उसे अपने बदन से,
दूर मत भागो,
वह तुम्हारी अपनी है।
महसूस करो उसका स्पर्श,
आदत डाल लो उसकी,
भूलो नहीं
कि यह धूल ही है,
जिससे आख़िर में
तुम्हें मिलना है।
पिता खाँसते हैं,
तो पूरा मोहल्ला जान जाता है
कि घर में कोई है,
कोई चोर-उचक्का
साहस नहीं करता
घर में घुसने का,
अमेज़ॅनवाला नहीं लौटता
बिना सामान दिए,
डाकिया नहीं लौटता
बिना ख़त दिए,
घर में नहीं छाती कभी
ख़ामोश मुर्दनी।
पिता सिर्फ पिता नहीं है,
वे घर का दरवाज़ा हैं,
दरवाज़े के अंदर का कुंडा हैं,
बाहर का ताला हैं।
पिता दिन में भी खाँसते हैं,
पर रात में ज़्यादा खाँसते हैं,
उन्हें नींद नहीं आती,
पर हम चैन की नींद सोते हैं।
मूर्ख बनाने का भी कोई दिन होता है क्या,
हम तो हमेशा ही बनाते रहते हैं,
शुरुआत में प्रयोजन से बनाते थे,
अब तो आदत हो गई है बनाने की।
कितना अच्छा लगता है मूर्ख बनाकर,
भरोसा हो जाता है अपनी होशियारी में,
पर यह कहाँ पता होता है हमें
कि मूर्ख बनाने के चक्कर में
कितने मूर्ख लगते हैं हम ख़ुद?
कौन नहीं जानता हमारे सिवा
कि कितने बड़े मूर्ख हैं हम,
सब जानते हैं, जितने हम लगते हैं,
असल में उससे ज़्यादा ही होंगे।
अब से फ़र्स्ट अप्रैल को मूर्ख बनाने की नहीं,
अपनी मूर्खता को पहचानने की कोशिश करें
और पहचान जाएँ, तो ग़म न करें,
मूर्खता की नहीं, होशियारी की बात है
कि होशियार होने से बेहतर है मूर्ख होना।
वह हमेशा समय पर पहुंची स्टेशन,
पर चढ़ नहीं पाई किसी डिब्बे में,
उसे ठेल दिया हमेशा
चढ़नेवालों या उतरनेवालों ने,
प्लेटफ़ॉर्म पर ही छूटती रही वह।
देर से उसे समझ में आया है
कि ट्रेन में चढ़ने के लिए
काफ़ी नहीं है टिकट ले लेना,
समय से प्लेटफ़ॉर्म पर आ जाना,
डिब्बे तक पहुंच जाना।
उसे ज़्यादा ज़ोर लगाना होगा,
थोड़ा स्वार्थी, थोड़ा निर्मम होना होगा,
थोड़ी हिम्मत जुटानी होगी,
चीरना पड़ेगा भीड़ को,
तभी वह चढ़ पाएगी डिब्बे में,
तभी वह कर पाएगी यात्रा।
वृद्धावस्था पर मेरी 51 हिन्दी कविताओं का संकलन ‘बूढ़ा पेड़’ अमेज़न पर उपलब्ध है। संकलन की एक कविता का मैंने अंग्रेज़ी में अनुवाद किया है। पढ़िए, मूल कविता और उसका अनुवाद।
***Old Road
Do you still remember,
You had taken this road
To reach the highway?
Now, it is broken at places,
Unfit to take anyone anywhere,
But it’s still not beyond repair.
Mend it to repay the debt
Or maybe for your own good,
Who knows, you may need it again
To come back some day?