कोरोना से संबंधित ५१ कविताओं का मेरा संकलन 'मौन की आवाज़' हाल ही में प्रकाशित हुआ है। यह अमेज़न पर उपलब्ध है। क़ीमत 49 रुपए है। इसी संकलन की एक कविता, 'ये लौटकर नहीं आएँगे':
**
कोरोना से संबंधित ५१ कविताओं का मेरा संकलन 'मौन की आवाज़' हाल ही में प्रकाशित हुआ है। यह अमेज़न पर उपलब्ध है। क़ीमत 49 रुपए है। इसी संकलन की एक कविता, 'ये लौटकर नहीं आएँगे':
**
कृष्ण,
आज फिर से जन्म लो,
नए इरादों के साथ,
नई समस्याओं से निपटने।
कृष्ण,
अब तुम्हारे पास समय नहीं
कि मधुबन में गाएँ चराओ,
गोपियों-संग रास रचाओ,
ग्वालों के साथ खेलो,
हांडियों से माखन चुराओ।
कृष्ण,
अब कालिया-दमन नहीं,
पूतना-वध नहीं,
उंगली पर गोवर्धन-धारण नहीं,
बड़े-बड़े काम पड़े हैं,
चुनौतियाँ बहुत बड़ी हैं।
कृष्ण,
अब एक द्रौपदी नहीं,
कई-कई द्रौपदियाँ
एक साथ पुकार रही हैं तुम्हें,
तुम्हें हर जगह जाना है,
दुःशासन को ठिकाने लगाना है।
कृष्ण,
अब काफ़ी नहीं
कि तुम किसी के सारथी बन जाओ,
यह महाभारत भीषण है,
इसमें तुम्हें अस्त्र उठाना होगा
और शायद अकेला सुदर्शन-चक्र
इसे जीतने के लिए काफ़ी न हो।
मेरे घर में बहुत-सी किताबें हैं,
कुछ अधपढ़ीं, कुछ अनपढीं।
किताबें ख़रीदने का शौक़ है मुझे,
पर पढ़ने का नहीं,
अच्छी लगती हैं मुझे
अलमारियों में किताबें,
जैसे खिड़कियों पर परदे,
सेंटर टेबल पर गुलदान,
दीवारों पर पेंटिंग्स,
बालकनी में गमले।
मेरे घर में किताबों का दम घुटता है,
कभी-कभी वे कहती हैं,
हमें नहीं पढ़ना, तो न सही,
कम-से-कम खोलकर तो देखो,
हम भी कभी हवा में साँस लें,
हम भी कभी बाहर की दुनिया देखें।
मैं कोई जवाब नहीं देता,
वैसे तो मेरे घर में बहुत-सी किताबें हैं,
पर मुझे नहीं आता
किताबों से बात करना।
कोरोना पर लिखी गईं मेरी 51 कविताओं का संकलन ‘मौन की आवाज़’ अब amazon पर उपलब्ध है. इन कविताओं में सिर्फ़ मेरे ही नहीं, आप सभी के अनुभव हैं, क्योंकि कोरोना से कोई अछूता नहीं रहा. लाखों मज़दूरों का गांवों की ओर पलायन, अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी, श्मशान-घाटों में क़तारें- मैंने हर पहलू को इन कविताओं में समेटने की कोशिश की है. उस समय की आशंकाएँ, अपेक्षाएँ, दरियादिली,ओछापन - सबकी झलक इन कविताओं में मिल जाएगी.
कोरोना बीत चुका है, पर शायद उसे इतनी जल्दी भूल जाना ठीक नहीं है. हर त्रासदी बहुत कुछ सिखाकर जाती है. उसको भूल जाने का अर्थ उसकी सीख को भी भूल जाना होता है. त्रासदियाँ तो आती ही रहती हैं- कोरोना नहीं तो कुछ और. एक त्रासदी जो सिखाकर जाती है, वह दूसरी से लड़ने में हमारी मदद करती है. यह हमें आत्म-मंथन का मौक़ा भी देती है. त्रासदी में ही हमारे चरित्र का पता चलता है. जब सब कुछ ठीक चल रहा हो, तो हमें ख़ुद को और दूसरों को आजमाने का मौक़ा ही नहीं मिलता.
उम्मीद है कि ये कविताएँ अपने पाठकों को इस सदी की सबसे बड़ी त्रासदी को जल्दी भूलने नहीं देंगी. ये हमें अपनी कमज़ोरियों की याद दिलाती रहेंगी और अपनी ताक़त की भी. ये हमें यह भी याद दिलाती रहेंगी कि त्रासदी कितनी भी बड़ी हो, उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिए.
‘मौन की आवाज़’ कोरोना पर मेरी कविताओं का तीसरा संकलन है. पहला संकलन ‘जमी हुई ख़ामोशी’ और दूसरा ‘पत्तों पर अटकी बूँदें’ के नाम से प्रकाशित हो चुका है. आशा है कि इन दो संकलनों की तरह यह संकलन भी आपको अच्छा लगेगा. इसे 49 रुपए में ख़रीदा जा सकता है। लिंक यह है-
https://www.amazon.in/dp/B0DDQ8DNZ3
मुझे बहुत अच्छी लगती हैं
साइकिल चलानेवाली लड़कियाँ।
जब वे पैडल मारते हुए निकलती हैं,
बहुत बहादुर लगती हैं,
जब दोनों हाथों से हैंडल थामती हैं,
तो लगता है, यक़ीन है उन्हें ख़ुद पर.
सीट पर बैठी लड़कियाँ जानती हैं
हर हाल में संतुलन बनाए रखना,
छोटे-मोटे पत्थरों की परवाह नहीं करतीं
साइकिल चलानेवाली लड़कियाँ।
उन्हें पता होता है
कि कहाँ रुकना है,
कितना रुकना है,
क्यों रुकना है,
कि उनकी मंज़िल कहाँ है।
बहुत मज़बूत होती हैं
कमर में दुपट्टा खोंसे
साइकिल चलानेवाली लड़कियाँ,
इससे पहले कि वे घंटी बजाएँ,
मैं किनारे हो जाता हूँ,
मुस्कुराते हुए सर्र से गुज़र जाती हैं
देखने में दुबली-पतली
साइकिल चलानेवाली लड़कियाँ।