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शुक्रवार, 5 जुलाई 2019

३६६. राजधानी का दुःख

मैं राजधानी ट्रेन हूँ,
कहने को राजधानी हूँ,
पर बहुत दुखी हूँ.

मैं गाँव-देहात से होकर 
गुज़रती ज़रूर हूँ,
पर वहां रुकती नहीं,
वहां के लोगों से 
कभी मिलती नहीं,
बस धड़धड़ाकर
आगे निकल जाती हूँ,
जैसे कि मैंने उन्हें 
देखा ही नहीं.

चलती रहती हूँ मैं,
अपने लिए सोचने का 
समय ही कहाँ है,
बड़े स्टेशन आते हैं,
तो ज़रा-सी रुक जाती हूँ,
फिर चल पड़ती हूँ,
जैसे बेमन से रुकी थी.

लोग न जाने क्या समझते हैं,
पर सच में मेरी चलती,
तो मैं राजधानी नहीं,
पैसेंजर होना पसंद करती. 

6 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (07 -07-2019) को "जिन खोजा तिन पाईंयाँ " (चर्चा अंक- 3389) पर भी होगी।

    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है

    ….
    अनीता सैनी

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  2. Passenger train hoti, to theek iska ulta likhti… kaash main Rajdhani hoti.. saaf suthre log, saaf suthri main. Na kahin paan ka daag, na koi pothDe ki gathri bana kar chupke se seat ke neeche daba de. Na bheed ka faayda utha kar, idhar udhar chalet haath. :)

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  3. Agar maine bachche vaali Kavita bhai abhi hi na likhi hoti, to shayad yahi likhti. :)

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  4. अद्भुत ¡विलक्षण सोच रेल का भी दर्द होता है बस कवि ही समझ सकता है।
    बहुत सुंदर ।

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